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होने के आस-पास प्ररूपात प्राचार्य पादलिप्त सूरि हुए जो पैरों पर प्रौषधिय का लेप कर आकाश में उड़ कर तीर्थ यात्रा करते थे। उनके नाम से उनके शिष्य नागार्जुन ने पालीताणा की स्थापना की। ये महान विद्वान करि
और प्रखर प्रतिभाशाली पुरुष थे । वीरात्, 436 (वि. सं. पू. 34-ई. सं.पू 91) में प्रार्य दिन मूरि के मंयोजकत्व के आगमों की माधुरी वाचना हुई इसके पश्चात् प्राचार्य ववस्वामी, प्राचार्य मिहसूरि के पट्टधर हुए जिनका युग प्रधान काल वी. सं. 548 से 584 (वी. सं.78 से 114, ई. सं. 21 से 57माना जाता है । ये दर्श पूर्व ज्ञानी थे । इनको द्वितीय भद्र बाहु मान लें ते श्वेताम्बर दिगम्बर मतभेद मिट जाता है। उन्होंने जावड़ शाह को उपदेश देकर वी. मं. 590 (वि. सं. 120-ई. सं. 63) में शत्रुजय तीर्थ का उद्धार कराया । व्रजस्वामी को आकाशगामिनिलब्धि प्राप्त थी और संघ को दुर्भिक्ष जानकर सुभिक्ष नगरी में लाये।
वी. सं. 500 (वि. सं. 30-ई. सं. पू. 27) के पास-पास प्राचार्य विमल सूरि ने प्राकृत में प्रसिद्ध ग्रन्थ 'पउम चरियं' जैन रामायण की रचना की। प्राचार्य वज स्वामी के शिष्य प्राचार्य वज्रसेन सूरि (वी. सं. 584 से 620--वि. सं. 114 से 150, ई. सं. 57 से 93) हुए। उनके समय में फिर 12 वर्ष का दुष्काल पड़ने पर प्राचार्य वज्रसेन सूरि दक्षिण में सोपारक पधारे जहाँ पर सेठ जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्र 1. नागेन्द्र, 2. चन्द्र, 3. निवृत्ति व 4. विद्याधर ने वी. सं. 592 (वि. सं. 122-~-ई. सं. 95) में दीक्षा ग्रहण की । दुष्काल मिटने पर इन प्राचार्य के समय में मन्दसौर में तीसरी पागम वाचना प्राचार्य नन्दिल सूरि व प्राचार्य रक्षित सूरि स्वर्गवास वी. सं. 597 ( वि. सं. 127- ई. सं. 70 ) के संयोजकत्व में हुअा । और आगमों को चार अनुयांग 1. द्रव्यानुयोग (दृष्टिवाद) 2. चरणानुयोग (11 अग, छेद, सूत्र महाकल्प उपांग, मूल सूत्र) 3. गणितानयोग (सूर्य प्रजाप्ति चन्द्र प्रज्ञप्ति) और 4. धर्म कथानुयोग (ऋषिभाषित उत्तराध्ययन) में विभाजित किया गया। प्राज इन अनुयोगों के प्रमाण से, आगमों का अध्ययन और अध्यापन होता है। दिगम्बर मतानुसार प्राचार्य 1. वही, पृ. 236 से 241
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