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अति के प्राधार पर संप्रति के निर्माण कराये हुए माने जाते हैं जो वास्तव में जैन अशोक समझा जाता था ।।
10, प्रार्य सुहस्ति सूरि के शिष्य मा० सुस्थित सूरि और प्रा. सप्रतिबुद्ध सूरि थे जो कांकदी नगरी के निवासी होकर सगे भाई थे । इनका काल वी. सं 292 वि. सं पू 178 ई. स. पू 235 से माना जाता है। उन्होंने उदयगिरि की पहाड़ी पर कोटि करोड़ बार सूरि मंत्र का जाप किया जिससे भगवान महावीर के श्रमण, निग्रंथ से कोटिकगच्छ प्रसिद्ध हुए ।
वी. सं. 330. (वि. सं. पू. 140-ई. स. पू. 197) के बाद खारवेल कलिंग देश का महान् प्रतापी जैन सम्राट हुआ जिसने श्री वलिस्सह आदि 207 जिनकल्पी साधुओं और 100 अन्य साधुनों, कुल 300 साधुनों को कुमारगिरि पर एकत्र कर जैन साहित्य का पुनरुद्धार किया । यह हाल उड़ीसा के खण्ड गिरि पर स्थित दूसरी शताब्दी के शिलालेख में पाया जाता है कि खारवेल ने मौर्यकाल से नष्ट हए अंग उपांग के चौथाई धाम का पुनरुद्धार किया था।
__वी. सं. 291 (वि. सं. पू. 179-ई. स. पू. 236) में प्रार्य सुहस्ति के स्वर्गवास के बाद प्राचार्य गुण सुन्दर जी को संघ का भार सौंपा गया, संप्रति की प्रा. गुण सुन्दरजी पर अगाध श्रद्धा थी जिसके कथन पर जैन संघ के लिये अविस्मरणीय कार्य किये गये । गुजराती इतिहास में लिखा है कि समूचा संप्रति साम्राज्य प्रा. गुणसुन्दरजी के इंगित पर संचालित होता था। यही कारण है कि उस समय देश अधिक से अधिक अहिंसा की प्रतिष्ठा कर सका । वी. सं. 335 (वि. सं. पू. 135 ई. स. पू. 192) में प्रा. गुरणसुन्दरजी का स्वर्गवास
I. “Almost all ancient Jain temples or monuments of
uoknowo origin are ascribed by the voice to Samprati, who is in fact regarded as a Jain Athoka."
Smith's Early History of India p. 202 2. जैन परम्परा नो इतिहास, भाग 1 लो। लेखक मुनि श्री दर्शन ज्ञानल्लाय
विजयजी त्रिपुटी महाराज । पृ. 213
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