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पर दक्षिण की अोर चले गये, परन्तु चन्द्रगिरि के पहाड़ पर पार्श्वनाथ बस्ती के कन्नडी शिलालेख से विवेचन मिलता है कि प्रथम भद्रबाहु दक्षिण में नहीं गये; किन्तु द्वितीय भद्रबाहु दक्षिण में पधारे । प्राचार्य देवसेन सूरिजी वी. सं. 606 (वि. सं. 136-ई. स. 79) में श्वेताम्बर दिगम्बर भेद पड़ना मानते हैं और श्वेताम्बर मतानुयायी, प्राचार्य व्रज स्वामी के बाद वी. सं. 609 (वि. सं. 139-—ई. सं. 82 ) में दूसरे भद्रबाहु के समय से मानते हैं । दिगम्बर मत के अनुसार सुधर्मा स्वामी से भद्रबाहु की परम्परा में जम्बु, विष्णु, नन्दी, अपराजित गोवर्धन, को बीच में मानते हुए, उनका काल 162 वर्ष गिनते हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही उन्हें श्रुत-केवली स्वीकार करते हैं । चन्द्रगुप्त मौर्य राजा, भद्रबाहु के समकालीन माने जाते हैं । अन्तिम नंद राजा का उन्मूलन कर, चन्द्रगुप्त ने मगध देश पर राज्य स्थापित किया । अन्तिम अवस्था में राज-पाट छोड़ कर प्रभाचन्द के नाम से जैन साधु बने ।
8. श्री स्थूलभद्रजी ( वी. सं . 170 से 215 वि. स. पू. 300 से वि.सं.पू. 255; ई.सं. पू. 357 ई. सं. पू. 312 ) नवें मंद राजा के मंत्री शकटाल के पुत्र थे । गृहस्थपने में 4 मास वेश्या के घर में रहते हुए, अपने पिता की मृत्यु से, वैराग्य में तल्लीन होकर संसार छोड़कर सुधर्मास्वामी के शिष्य बन गये । ये दस पूर्व सार्थ और 4 पूर्व अर्थरहित जानते थे । उनके समय में 11 अग तथा 14 पूर्व के ज्ञाता श्रमण पाटलीपुत्र पटना में, एकत्र हुए और उन्होंने कण्टस्थं प्रागमों को लिपिबद्ध करने का महत्तम प्रयास किया । ये जैन जगत में महान् कामविजेता माने जाते हैं जिन्होंने, गृहस्थ जीवन में कोशा वेण्या को रंगशाला में अपना चातुर्मास बिता कर, उसको प्रतिबोध, किया। उन्होंने नंद वंश के अन्तिम राजाओं को भी जैन धर्म का उपासक बनाया चन्द्रगुप्त का स्वर्गवास वी. सं. 230 ( वि. सं. पू. 240-ई. स. पू. 297 )
1. जैन सिद्धान्त भास्कर पृ. 25 2. जैन परम्परानो इतिहास भाग पहलो : लेखक त्रिपुटी महाराज
पृ. 315-316 3. Vincent Smith's History of India Pp. 9-146.
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