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गणधर श्री गौतम स्वामी को केवल ज्ञान हुआ और वीर सं. 12 (वि. सं. पू. 458 - ई. स. पू. 515 ) में वे मोक्ष पधारे ।
1. प्रथम पट्टधर श्री सुधर्मा स्वामी ( वी. सं. 1 से 20 तक वि, सं. पू, 470 से 450 ई. स पू. 527 से 507 ) इनके द्वारा प्रवर्तमान किया हुआ गच्छ का नाम 'निर्ग्रन्थ' पड़ा जो आठ पाट तक चला ।
सुधर्मा स्वामी जैन शासन के समर्थ ज्योतिधर थे । हिंसा के निवारण के लिए भगीरथ प्रयत्न किया । इन्होंने 12 आगमों की रचना की । भगवान् महावीर और श्री सुधर्मा स्वामी के काल में, कोशी कोशल आदि 16 महाराज्य लिच्छवी विदेही और मल्ल तीन गणतन्त्र राज्य थे । लिच्छवी से जुदा 9 संघों का एक संघ राजा था जिसकी राजधानी विशाला थी, जिसका मुख्य नायक महाराजा चेटक भगवान महावीर के मामा थे। महाराजा चेटक और लिच्छवी राजा परम जैन थे । विदेही की राजधानी मिथिला थी । भगवान् महावीर ने 12 चातुर्मास विशाला में और 6 चातुर्मास मिथिला में किये । मध्य भारत में उस समय कुल मिला कर 7707 गण राज्य थे । वीर संवत् 1 में अवन्ती नगरी ( उज्जैन ) के चन्द्र प्रद्योत राजा के पौत्र पालक का राज्याभिषेक हुआ और इस राज्य का वी. सं. 60 ( वि. सं. पू. 410 - ई. स. पू. 467 ) में उच्छेद होकर नव नन्द राज्य की स्थापना हुई जो वी. सं. 215 ( वि. सं. 255 - ई. स. पू. 312 ) तक चला । तत्कालीन पार्श्वनाथ संतानीय श्री केशी गणधर थे जिन्होंने महावीर स्वामी के शासन में प्रवेश कर अपने श्रमण संघ का नाम 'पार्श्वपात्य' रखा । इस गच्छ से वी. स. 70 ( वि. स. 400 - ई. स. पू. 457 ) के करीब उपकेशगच्छ का प्रादुर्भाव हुआ जिसके छठे प्राचार्य श्री रत्न प्रभु सूरि बड़े प्रभावशाली हुए । उनके उपदेश से राजा उहड़ और उनके मन्त्री ने जैन धर्म अंगीकार किया । वे श्रोसिया ( उपकेशपुर ) के थे जिससे 'प्रोसवाल' कहलाये । आचार्य श्री रत्न प्रभु सूरि ने 1 लाख 80 हजार व्यक्तियों को जैन बनाए और श्री-माल नगर ( भिन्नमाल ) में श्री - माली जैन बनाये । वी. स े 84 (वि. सं. पू. 386 ई. स. पू. 443) में स्वर्गवास के बाद उनके शिष्य श्री यक्षदेवसूरि ने अपने उपदेश से सम्भवतः बंगाल में जैन बनाये वे 'सराक' कहलाये जो आज भी
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