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प्रादि ब्राह्मण भी अपने सैंकड़ों शिष्यों सहित आये जिनकी प्रात्मा सम्बन्धी विविध शंकानों के निवारण होने के बाद वे अपने शिष्यों सहित दीक्षित हो गये । मुख्य अग्रगण्य पंडित ग्यारह थे जो गौतम सुधर्मादि के नाम से 11 गणधर कहलाये । उन्होंने वीर प्रभु से ध्रौव्य, उत्पादक और व्ययात्मक त्रिपदी सुनकर बारह अंग और बारहवें दृष्टिवाद के अन्तर्गत, चौदह पूर्व रचे । सूधर्मा गरगधर को सर्व मुनियों में मुख्य बना कर, गण की अनुज्ञा दी, जिसके कारण, सुधर्मा स्वामी से भगवान महावीर की साधु परम्परा अद्यावधि चली आ रही है । इसी प्रकार, साध्वियों में प्रभु ने चन्दना (चन्दन बाला) को प्रवर्तिनी पद पर स्थापित किया जिससे साध्वियों की परम्परा चली आ रही है।
__ भगवान महावीर अपने केवल ज्ञान बाद 30 वर्ष और संसार में रहे और उस अवधि में 59 राजा जैनानुयायी बने और उसमें से कई एक राजा दीक्षा लेकर मोक्ष गये। प्रभु महावीर कौशांबी नगरी में मेंढक गांव में पधारे तो गौशाल उनके ही दीक्षित शिष्य ने उन पर तेजो लेश्या छोड़ी किन्तु अरिहन्त पर तेजो लेश्या का असर नहीं होने से वह उसी के शरीर में प्रवेश कर गई और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। भगवान महावीर ने अंतिम देशना अपापा नगरी में, राजा हस्तिपाल के यहाँ पर दो। समवसरण में उपदेश देकर उसी हस्तिपाल राजा के शुल्क दारण (शाला) में, वीर प्रभु ने वि. सं. पू. 470 (ई. सं. पू. 527) कात्तिक कृष्णा की अमावस्या की अर्द्धरात्रि को अपना शरीर छोड़ा और निर्वाण पद पाया। महावीर भगवान् की कुल आयुष्य 72 वर्ष की थी । भाव दीपक के उच्छेद होने पर, सब राजाओं ने द्रव्य दोपक किये जब से लोगों में दीपोत्सव (दीवालो) प्रवर्तमान हुअा। जिस स्थान पर प्रभु का अन्तिम संस्कार (दाह-क्रिया) की गई वह स्थान 'पावापुरी' कहलाई । वह आज भी महान् जैन तीर्थ माना जाता है । निर्वाण के पूर्व तीन दिन तक, महावीर भगवान् ने 9 राजा लच्छवी जाति के और 9 राजा मल्लवी जाति के कुल 19 देशों के राजाओं को अखण्ड प्रवाह से उपदेश दिया था। भगवान् महाशेर के उपदेश :
विश्वोपकारी वीर परमात्मा ने, संसार के समस्त प्राणियों को, बिना किसी जाति भेद-भाव के उपदेश दिये थे। उनके उपदेशों में, जगत् के स्वरूप
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