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सप, तपस्या और तीर्थ यात्रा हेतु हजारों और लाखों रुपयों का सदध्यय करके जैन सिद्धान्तों का अनुमोदन करते हुए जनोपयोगी सार्वजनिक कार्यों में भी अपना हाथ बँटा रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष बोध महावीर के 2500 वाँ निर्वाण महोत्सव (जो सन् 1974-75 में मारे देश और विदेश में मनाया गया) से, संसार को हुआ है। प्रागैतिहासिक काल-चक्र :
__ जैन धर्म के प्रागैतिहासिक की ओर दृष्टिपात करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि अति प्राचीन काल से जैन धर्म चला आ रहा है। इस मान्यता के अनुसार जैन धर्म में काल के दो भेद हैं-एक उत्सर्पिणी अर्थात् चढ़ता काल और दूसरा अवसर्पिणी काल अर्थात् उतरता काल । दोनों काल को जोड़ देने पर, वह 'काल-चक्र' कहा जाता है। एक काल-चक्र 20 कोडा कोडी सागरोपमा का होता है जिसमें असंख्याता समय बीत जाता है। भूतकाल में ऐसे कई काल-चक्र हो गये हैं और ऐसे कई एक भविष्य में होते रहेंगे । एक समय वर्तमान काल है और भूत, भविष्य और वर्तमान काल 'सर्व श्रद्धा काल' कहा जाता है। तीर्थ और तीर्थङ्करः
तारयतीति तीर्थ अर्थात जो संसार समुद्र में तरा सके, उसे तीर्थ कहा जाता है। तीर्थ के दो प्रकार हैं-(1) जंगम और (2) स्थावर । जंगम में माधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका पाते हैं, जिनको चतुर्विध संघ कहा जाता है। ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वाले को तीर्थङ्कर कहते हैं। तीथं करोतीति तीर्थङ्कर' अर्थात जो तीर्थ को स्थापित करे वही तीर्थङ्कर कहलाते हैं। अनन्तान्त काल में, अनन्त चौबीसी तीर्थङ्कर हो गये हैं और अनन्त ऐसे तीर्थङ्कर हो जायेंगे। अत: जैन प्रातः अनन्त चौबीसी जिन तीर्थङ्करों की वंदना करते हैं। 1. दस कोटा कोटी (क्रोडा कोड) पल्योपम का एक सागरोपम होता है और पल्योपम की व्याख्या पृष्ठ 4 पर आगे दी गई है।
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