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वे कंचन और कामिनी के त्यागी होते हैं । सदैव आत्म चिंतन में रमण करते हैं और सांसारिक जीवों को भी इस पथ पर विचरण करने के लिये प्रेरित करते रहते हैं । प्रस्तुत पुस्तक में, ऐसे नि:स्वार्थी, त्यागी और परोपकारी श्रमणों और श्रमणोपासकों का परिचय दिया गया है जिन्होंने इस संस्कृति के सिद्धान्तों का प्रचार और प्रसार करके जैन धर्म का उज्ज्वल और उन्नत विकास किया है । इन महान पुरुषों ने न केवल लोकोत्तर और लोकोपयोगी विविध विषयों पर विशाल ग्रन्थों का सृजन किया है; किन्तु वास्तु, स्थापत्य, चित्रकला एवं मूर्ति कला आदि कई क्षेत्रों में अनुपम योगदान भी प्रदान किया है ।
श्रमणों ने अपने प्रवचनों से, बड़े-बड़े सम्राटों, राजानों, महाराजाश्रों. राजनयिकों एवं साधाररण जनता को जागृत कर उनका आत्म कल्याण किया है । स्वयं श्रमण भगवान् महाबीर नेः श्ररिक, चेटक, प्रद्योत, उदायन आदि राजाश्र श्रामन्द और कामदेव आदि साधारण व्यक्तियों, चंदनबाला श्रौर मृगावती आदि मतियों और दलित समझे जाने वाले लोगों तथा चंदकौशिक नाग को प्रतिबोधित कर उनका उद्धार किया है। भगवान महावीर की परम्परा में प्राचार्य सुहस्तिसूरि ने, सम्राट सम्प्रति को अपना अनुयायी बना कर, भारत के बाहर सुदूर प्रदेश में श्रमरण संस्कृति का प्रचार किया है। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने गुजरात के राजा कुमारपाल को परमात श्रमणोपासक बनाकर, सारे राज्य में अमारि ( अहिंसा) का ऐसा जबर्दस्त डंका बजवा दिया कि यूक जू ं तक मारना निषेध था, महा प्रभावक प्राचार्य श्री हरि विजय सूरिजी ने अपने वचनामृत से सम्राट अकबर को श्रद्धालु बना कर, जीव हिंसा निषेध के कई फरमान (पट्टे और परवाने) जारी करवाये । इतना ही नहीं, बादशाह अकबर जैन धर्म से इतना प्रभावित हुआ कि मांस मदिरा से परहेज करने लग गया । आधुनिक समय में स्व. श्राचार्य श्री आत्मारामजी ने, जैन स्नातक श्री वीरबन्द राघवजी को, कुछ महिनों तक इस संस्कृति का अध्ययन करा, शिकांगो, अमेरिका की विश्व धर्म परिषद् में भेज कर, विश्व में जैन धर्म की ख्यातिः प्रकट की । इस प्रकार कई श्रमरणों और श्रमणियों ने, 'कई आत्माओं का जीवन सफल कर श्रमण संस्कृति को सुदृढ़ और सबल
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