________________
सुवर्णमय शब्दो.
हे पुत्र! आ संसार जे दुर्लभ छे ते पण मुलम यह जाय छे. गत स्त्री, गत द्रव्य, गत मित्र, गत वस्तु के जे एक वखते तने प्रिय हता, तेथी मियतर पण पुनः प्राप्त थाय छे; परंतु खरा माता पिता एकवार जो गत थया तो फरी कोटि उपाये तने तेना दर्शन थनार नथी माटे तेमनी हैयातीमा तेमना प्रत्ये तारी द्वेषबुद्धि मा थाओ.
हे आत्महित इच्छनारा तरुण! तुं हैयात हइश वो तीर्थना स्थळो कोई एकदम नाश पामवाना नथी. शिरनुं छत्र एक भांगशे तो बोजु मळगे. आपणा जन्मदाताने माटे तीर्थस्वरुप अने शिरछत्रनी जे उपमा आपीए छीये ते मने तो न्यून लागे छे! तुं देवना दर्शन करवा जाय छे; परन्तु ते देव प्रत्यक्ष वात करता नथी; छतां तारी अंतःश्रद्धा परमेश्वर सर्व व्यापक होवाथी ते द्वारा पण जुए छे वो पछी साक्षात् लौकिक देवप्रतिनी तारी श्रद्धाशुं ते नहि जोई शके?
हे तात! तारो पुत्र तारो अनादर करे, वने घरमाथी बहार काढी मूके, तने खावा न दे, तारी सामे द्वेषदृष्टीथी जुए, ते वने फेवं लागे? एवं शं तारा मातापिताने तारा अनुचित वर्तनथी नहि लागतुं होय?
हे संसारयात्रा सफळ इच्छनारा बालक! तारे मा संसारमा तारा सुखनो मार्ग सरल करवो छ ? तने सुसंतति जोईये छे? तने पारलौकिक शान्तिने पुष्टि आपनार कोई उत्तम तत्त्व मा जगता मूकी जवानी इच्छा थाय छे? तारामा आ अमूल्य भने उत्तम मनुष्य देह धरी तेने अधोगामी न करवानी भावनानुं प्रकटीकरण थाय छे ? जो ए बधुं वने इष्ट न होय वोज तुं वारा माता पितानी सेवा नहि करतो।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com