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प्राचीन तिब्बत __ कुछ दिन बीत जाने पर उस स्थान पर एक पेड़ के अंकुर उग आये । आस-पास के लोगों में यह बात फैल गई और होते-होते दूरदूर के लोग उसकी पूजा करने आने लगे। आज की विशाल और सुप्रख्यात कम्बम की गुम्बा का आरम्भ यहीं से होता है।
कई साल बाद जब कि सौंग खापा ने अपने धर्म-सुधार का काम हाथों में लिया और घर छोड़े हुए उन्हें बहुत दिन हो गये तो उनकी माता ने पत्र द्वारा उन्हें घर बुला भेजा। उस समय त्सोंग खापा मध्य तिब्बत में थे। उन्होंने अपने ध्यान में ही पता चला लिया कि उनके अाम्दो जाने से किसी प्राणी का कोई विशेष लाभ न हागा। अस्तु, उन्होंने हरकारे को एक पत्र, अपनी दो तस्वीरें. ग्यालवा सेन्ज और तांत्रिक देमलोग के कुछ चित्र देकर उल्टे पाँव वापस भेजा। इसके अतिरिक्त योगबल से उतनी दूर तिब्बत में बैठे-बैठे वहीं से इस पेड़ की पत्तियों पर उन तस्वीरों को ज्यों का त्यों अङ्कित भी कर दिया। तस्वीरें इतनी साफ थीं कि चतुर से चतुर चित्रकार वैसा चित्र न उतार सकता था। इन तस्वीरों के साथ और भी कई चिह्न और छ अक्षर (औं मणि पद्म हुँ।) वृक्ष को शाखाओं और छाल पर दिखलाई पड़े। __ इस विहार का नाम इस प्रकार कमबम की गुम्बा पड़ा। कमबम के शाब्दिक अर्थ हैं-"एक लाख चिह्न।
फ्रांसीसी यात्री हक और गैबेट अपने वर्णनों में लिखते हैं कि उन्होंने पत्तियों पर 'ओं मणि पद्म हुँ' पढ़ा था। फ्रांस में ऐसे कुछ और योरपीय यात्रियों से भेट हुई जिन्होंने इस बात का समर्थन किया। किन्तु मेरे देखने में तो ऐसा कोई पेड़ नहीं आया।
* गोरखपुर जिले में तहसील देवरिया से काई ७ मील दूर कोली नामक एक ग्राम है। यहाँ भी दो पेड़ ऐसे हैं जिनके कारण
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