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लामा लोगों का आतिथ्य किये हुए मेरे देश तक पहुँच सकता है और इसलिए मैं फिलिङ्ग नहीं थी। फिलिङ्ग के माने विदेशी हैं और विदेश यहाँ समुद्र पार के देश को कहते हैं। कहना न होगा कि मैंने इस शब्द का प्रयोग प्रालंकारिक भाषा में किया था। ___ मैं शिगाजे के पास इतने दिनों तक रुकी रही कि मेरा नाम देश में फैल जाना स्वाभाविक तौर पर आवश्यक हो गया। मैं अब बहुत सीधे-सादे ढङ्ग पर साधुओं का सा जीवन व्यतीत करती थी। इसी से मेरी प्रसिद्धि और भी हो गई। ताशी लामा की माता तक ने मेरे पास अपना निमन्त्रण भेजा। स्वयं ताशी लामा का बर्ताव मेरे साथ बहुत ही अच्छा था। लामा-धर्म के अध्ययन में मेरा उत्साह देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। हर प्रकार से इस कार्य में मेरी सहायता करने की उन्होंने तत्परता दिखलाई। उन्होंने मुझसे पूछा भी कि मैं तिब्बत क्यों नहीं चली जाती।
तिब्बत जाने की इच्छा तो मेरी भी थी, किन्तु मैं यह भी जानती थी कि ताशी लामा चाहे कितने भी आदरणीय व्यक्ति क्यों न हों, लेकिन वे दलाई लामा के उस वर्जित देश में मेरे जाने की स्वीकृति कदापि नहीं दिलवा सकते थे।
जिन दिनों मैं शिगात्जे में थी उन्हीं दिनों वह मन्दिर भी बनकर तैयार हो रहा था जिसे ताशी लामा आगामी बुद्ध मैत्रेय के नाम पर बनवा रहे थे। ___ एक बड़े कमरे में विराट रूप मैत्रेय भगवान् मूर्तिमान थे। बीस चतुर कलाकार स्थान-स्थान पर धनवान् रमणियों के भेंट किये हुए रत्नों की जड़ाई कर रहे थे। ताशी लामा की पूजनीया जननी भी अपने समस्त बहुमूल्य रत्नों की पेटी लेकर उपस्थित थीं।
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