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दूसरा अध्याय
लामा लोगों का प्रातिथ्य
अभी बनारस छोड़ने का मेरा विचार भी नहीं था कि परिस्थितियों ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि एक दिन सबेरे उठकर मुझे चुपचाप हिमालय की तराई की ओर ले जानेवाली एक रेलगाड़ी को पकड़ना ही पड़ा।
गगटोक पहुँचते-पहुँचते मालूम हुआ कि पुराने महाराजा अब इस संसार में नहीं रहे। उनके सुपुत्र युवराज सिक्योंग तुल्कु उनके उत्तराधिकारी हुए हैं। नये महाराजा ने जब मेरे आगमन का वृत्तान्त सुना तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उनकी इच्छा हुई कि मैं कुछ दिनों तक उनकी राजधानी में रुककर तब आगे बढ़े। मैं स्वयं अपने मन में ऐसा चाह रही थी। उनके प्रस्ताव को मान गई। मेरे रहने का प्रबन्ध भी गङ्गटोक से १० मील की दूरी पर वनस्थली में छिपी हुई पोदाऽ की गुम्बा (मठ) में लामा तुल्कु ने कर दिया।
मन्दिर में ही एक बड़ा विस्तृत कमरा मेरे रहने के लिए चुना गया। खाने के प्रबन्ध के लिए जो भोजनालय मिला वह कम छोटा न था। तिब्बती प्रथा के अनुसार मेरे नौकर रात को इसी में सोते भी थे।
दो बड़ी खुली खिड़कियों से होकर सूर्य का साग प्रकाश मेरे कमरे में आता था। हवा की कमी न थी। मेंह और ओले भी कमरे में अक्सर बिना रोक-टोक आ जाते थे।
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