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अध्यात्म की शिक्षा
१५९ राजर्षि जनक ने उस शिष्य का यह कहकर कि तुम्हें अब किसी शिक्षा की जरूरत नहीं है, उसके गुरु के पास वापस भेज दिया।
शिष्य का जब ध्यान करने का काफी अभ्यास हो गया तो उसके गुरु ने उसे अपने 'यिदाम्' ( इष्टदेव को ध्यान में रखकर समाधिस्थ होने ) की आज्ञा दी।
किसो एकान्त जन-शून्य स्थान में चेला बैठ गया। खाने के लिए दिन भर में केवल एक बार कुछ मिनटों के लिए वह अपना ध्यान ताड़ता था।
यिदाम् को ध्यान में रक्खे हुए, मन्त्रों का जाप करत करते और क्यिल-कहोर बनाते-बनातं महीनों बल्कि सालों का अरसा बीत गया। और बराबर शिष्य को यही आशा बनी रही कि अब वह दिन आना ही चाहता है, जब उसका यिदाम् उसके सामने क्यिलक्होर में आकर प्रकट रूप से दर्शन देगा। नियमानुसार थोड़ेथोड़े समय के बाद गुरु लामा शिष्य से उसकी उन्नति के बारे में पूछ-ताछ करते रहे। शिष्य ने बतलाया कि यिदाम् उसके क्यिल. वहार में प्रकट हुआ था ......और उसने अपने देवता को अपनी
आँखों से देखा भी था, लेकिन यह झलक केवल दो-एक क्षण के लिए उसके सामने आकर फिर अदृश्य हो गई थी। ____ "बहुत ठोक", गुरु लामा ने कहा-"अब सफलता निकट है। साहसपूर्वक बढ़े चलो।" ___कुछ दिन बाद यिदाम् क्यिल-वहार प्रकट होकर फिर गायब नहीं हो जाता था। वह सामने प्रकट रूप में बराबर अपने आकार में खड़ा रहने लगा। गुरु लामा ने कहा-"शाबाश ! लकिन तुम्हें इतने ही पर सन्तोष न कर लना चाहिए। जाओ
और फिर ध्यान लगाओ। तुम्हारा यिदाम् तुम्हारे सिर को छूकर तुम्हें आशीर्वाद देगा। तुमसे बोलेगा।"
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