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प्राचीन तिब्बत से मढ़ा हुआ एक ढक्कन होता था। महाराजा से कुछ दूर हटकर मेरी ही तरह को एक कुरसी पर अपना लम्बा लबादा शान से
ओढ़कर बर्मियग भी बैठते। उन्हें भी एक प्याला और चाँदी की तश्तरी मिलती लेकिन उनके सामने ढक्कन नहीं होता था। दावसन्दूप भी अक्सर मौजूद रहता था। वह वहीं फर्श पर हमारे पैरों के पास आसन जमाता। वह पालथी मारकर बैठ जाता और उसके सामने दरी पर एक प्याला रख दिया जाता था।
इस प्रकार तिब्बतो शिष्टाचार के कड़े और बेढंगे नियम बर्त दिये जाते थे।
तब एक युवक भृत्य चाँदी की एक बहुत बड़ी देगची हाथों में कन्धे के ऊपर लिये हुए प्रवेश करता और बड़े अदब और अदा के साथ मुक-मुककर हमारे प्यालों में चाय गिराता जाता। उसके ढंग से साफ जाहिर था कि वह अपने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के गौरव से भली भाँति परिचित था।
चाय के साथ-साथ मक्खन और नमक का भी व्यवहार होता था। कमरे के कोनों में अगरबत्तियाँ सुलगती रहती और कभीकभी दूर के किसी मन्दिर से संगीत का धीमा स्वर हमारे कानों तक पहुँचता रहता। इस बीच में विद्वान् और कुशल उपदेशक बर्मियग कुशोग का व्याख्यान भी चलता रहता___"अमुक अमुक ऋषि इस विषय में ऐसा-ऐसा कह गये हैं। फला-फलाँ जादूगरों ने कौन-कौन से चमत्कार दिखलाये हैं। इनमें से बहुत से तो अब भी पास के पहाड़ों में मौजूद हैं लेकिन उनके पास तक पहुँच सकना जरा टेढ़ी खीर है".........
कुशोग चोस्-दु-ज़द और बर्मियग् कुशोग् तिब्बत के दो प्रमुख सम्प्रदाय पोलो टोपो और लाल टोपीवालां के प्रतिनिधि-स्वरूप थे। इनके सम्पर्क में आकर बहुत-सी जानने योग्य बातों का पता चला।
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