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सातवाँ अध्याय
अध्यात्म की शिक्षा तिब्बत की धार्मिक जनता को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। पहले हिस्से में वे लोग आते हैं जो परम्परा से चले आये हुए ढोंगों में पूरा अन्ध-विश्वास रखते हैं और दूसरे वे लोग हैं जो ऊपरी बनावटी बातों को बेकार समझते हैं और निर्धारित नियमों को अवहेलना करके अपने-अपने अलग तरीक पर मुक्ति-मार्ग की स्वतन्त्र खोज के पक्ष में हैं।
लेकिन इसके यह माने कदापि नहीं हैं कि दोनों दलों के लोगों में आपस में कोई वैर भाव रहता है। इनमें आपस में धार्मिक मतभेद चाहे जितना हो, पर और सभी बातों में इनका परस्पर का बर्ताव भाई-चारे का सा रहता है।
नियमित रूप से साधु-जीवन व्यतीत करनेवाले संन्यासी मानते हैं कि सदाचार और मठ की नियम-बद्धता से आम तौर पर बहुतों को लाभ पहुँचता है, किन्तु वास्तव में ये बातें एक ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए सीढ़ियाँ भर हैं। दूसरे वर्ग के पक्षपाती स्वीकार करते हैं कि सदाचार की शिक्षाओं और नियमित जीवन का अपना अलग महत्त्व है और शुरू-शुरू में शिष्यों को इनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
और फिर यह बात तो आम तौर पर सभी लोग मानते हैं कि दोनों में से पहला तरीका अधिक सरल है। साधु-जीवन, सच्चरित्रता, जीवों पर दया, सांसारिक लिप्साओं का पूर्णतया तिरस्कार
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