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तिब्बत के लाभा उसे पढ़ाने से अधिक पढ़ने का शौक़ था । वह हफ्तों स्कूल नहीं जाता था । इतने समय में वह अपनी किताबों में भूला रहता था या और लामाओं के साथ बैठकर धर्म-चर्चा किया करता था । अपना सब काम उसने अपने सहायक अध्यापक को सौंप रक्खा था, जिसे उससे कुछ अधिक लड़कों की परवाह न थी । परवाह थी उसे सिर्फ एक बात की कि कहीं उसकी नौकरी छूट जाने की नौबत न आ जाय और इस बात का अलबत्ता उसे बराबर ध्यान बना रहता था ।
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इस प्रकार स्वतन्त्र छोड़ दिये गये लड़के अपने अधिकारों का पूरा-पूरा उपयोग करते थे। जो कुछ थोड़ा-बहुत सबक उन्हें याद भी हो जाता, उसे खेल-कूद में भूलते उन्हें देर न लगती । फिर एक दिन वह श्राता जब दावसन्दूप अपने शिष्यों के सामने यमराज की भाँति कठोर बनकर आता । सब लड़के एक पंक्ति में उसके सामने आकर खड़े हो जाते । तब सबसे किनारे खड़े हुए लड़के से कोई सवाल किया जाता । अगर उसने उसका उत्तर दिया तो दिया नहीं तो उसके पास खड़ा हुआ दूसरा लड़का जवाब देता । ठोक जवाब देने पर वह अपने बग़ल के साथी को एक चपत रसीद करता और अपनी जगह पर उसे करके स्वयं उसकी जगह पर खड़ा हो जाता । पिटनेवाले बेचारे लड़के को इतने से ही छुट्टी न मिलती । उससे दूसरा सवाल पूछा जाता । उसका भी जवाब न दे सकने पर उसके बग़ल में खड़ा हुआ यानी क़तार का तीसरा लड़का उत्तर देकर उसे उसी तरह थप्पड़ मारकर उससे अपने स्थान की बदली कर लेता । कभी-कभी तो आफ़त का मारा कोई बेचारा इसी तरह चपत पर चपत खाता हुआ हतबुद्धि होकर पंक्ति के एक सिरे से बिल्कुल दूसरे किनारे तक पहुँच जाता ।
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