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प्रा० जै० ० इ० दूसरा भाग
शब्द लिखा था उसमें 'अ' के सिर पर अनुस्वार लगाकर अध्ययन अर्थात् विद्याभ्यास कराने के बदले उसे 'अध्ययन' अर्थात् अन्धा कर देने की आज्ञा बना दिया । वह इस आशय से कि याद कुणाल अन्धा हो जायगा तो महेंद्र को राजगद्दी मिल सकेगी। इसके बाद वह तत्काल वहाँ से चली गई। उधर महाराज अशोक जैसे ही अपने कार्य से वापस लौटे कि उन्होंने जल्दी-जल्दी में उस पत्र को बिना फिर से पढ़े ही हस्ताक्षर करके, सील लगाकर, दूत के हाथ अवंतिका भेज दिया । दूत के पहुँचने पर उस पत्र का क्या परिणाम हो सकता था, इसकी कल्पना की जा सकती है । अवंतिका के दरबार में जैसे ही वह पत्र पढ़ा गया कि सबके चेहरों पर स्याही फिर गई । राजपुत्र के संरक्षण महाराज अशोक के भाई तो तत्काल समझ गए कि यह सब केवल राजकीय विवाद का ही परिणाम होना चाहिए । किन्तु अपने पिता के शाही फर्मान की तामील करने के लिये तत्काल ही राजकुमार कुणाल ने आग में तपकर लाल सुर्ख बने हुए लोहे के दो सरिए मँगाए और उन्हें अपने हाथों से ही अपनी आँखों में चुभा लिया; वह स्वयं अन्धा हो गया । दूत के वापस जाने पर जब यह समाचार पाटलिपुत्र पहुँचा तो सम्राट
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* मूल वर्णन में "इदानीमधीयतां कुमारः " इस प्रकार का वर्णाक्य है; इसमें केवल 'म' पर अनुस्वार लगा देने से "इदावीमंधीयतां कुमारः" पढ़ा गया । श्रर्थात् पहले वाक्य के अनुसार 'अब कुमार को अध्ययन कराया जावे" का श्राशय था, उसके बदले “अब कुमार को अन्धा कर दिया जाय" का आदेश कर दिया गया । अतएव पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये विवेकशील कुमार : स्वयं ही अन्धा
गया ।
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