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महाराज सम्प्रति के शिलालेख
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जुलता ही बौद्ध धर्म का सिद्धान्त भी है। किन्तु अशोक ने तो दूसरे जन्म में सुख प्राप्त होने की बात लिखने के बदले बारंबार 'स्वर्ग'११० शब्द का प्रयोग किया है । और धम्मपद, स्वर्ग तथा निर्वाण का भिन्न भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है ।
यदि किसी भी दर्शन में स्वर्ग ( देवलोक जहाँ जीव को सीधा मोक्ष प्राप्त हो ही नहीं सकता और संसार-भ्रमण शेष रह जाता है) और मोक्ष ( जहाँ जाने पर जीव को बारम्बार जन्म धारण नहीं करना पड़ता अर्थात् संसार का अन्त ही मोक्ष है) इन दो शब्दों के बीच का भेद बतलाया गया हो तो वह केवल जैन-दर्शन ही हो सकता है। इससे भी यह निःसंकोच कहा जा सकता है। कि शिलालेखों की धम्मलिपि की समग्र रचना ही जैन धर्म के अनुसार खोदी गई है ।
( २४ ) तिब्बत देश के ग्रन्थों में लिखा गया है १११ कि संप्रति पादशाह ( उन ग्रन्थों में संप्रति के बदले "संवादि" शब्द लिखा गया है) म० सं० २३५ में सिंहासनासीन हुआ था । दिव्यदान ११२ नामक ग्रन्थ में मगध देश के राजाओं की जो क्रमबद्ध तालिका दो गई है उसमें भी इस १३ संप्रति को अशोक का पौत्र और कुणाल का पुत्र बतलाया गया है ।
( ११० ) देखिए, रूपनाथ, सहसराम और वैराट के शिलालेख, ब्रह्मगिरि और सिद्धपुर के शिलालेख नं० ६ और 8, धौली के शिलालेख नं० १ और २ ।
( १११ ) इंडि० ऐंटि०, पुस्तक ३२, पृ० २३० |
( ११२ ) वही, ११४, पु० १६८ का फुटनोट नं० ६७ (प्रो०एन० कार्पेण्टर
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( ११३ ) इसी लेख का प्रमाण नं० ११ और नोट नं० २
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