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[ ३८ ] के इतने भागी नहीं है जितने हमारे पूर्वज कि उन्होंने हमारे हृदय में प्रारम्भ से ही ऐसे कुत्सित विचारों का समावेश कर दिया था; कि जैन निराशावादी एवं नास्तिक हैं।
पर आज हमारे लिए स्वर्ण दिवस का उदय होना प्रतीत हुआ है। अापके श्रीमुख से अमृत मय देशना के श्रवण करने मात्र से ही हमारे जगजंजाल टूटने की सम्भावना हुई है। आज आपने हमारे ज्ञान चतुओं को उन्मीलित कर दिये-हृदय में एक प्रकार की ज्योति प्रज्वलित हो गई जिससे हमारे सब भ्रम नष्ट हो गये। गुरुदेव ! जैन न तो नास्तिक हैं और न जैन धर्म जीवों को कायरता का पाठ पढ़ाता है-न जैन धर्म ईश्वरो. पासना का निषेध करता है-जैन धर्म एक उच्चकोटिका प्रादर्श है। प्रभो ? इतने दिनों तक हम अज्ञानता तथा मिथ्यात्व रूप नशे में मदोन्मत्त हो असंज्ञावस्था में पड़े हुए थे-हम इतने बेभान बन गए थे कि अधर्म को ही धर्म मान लिया । ठोक और बिल्कुल ठीक बिना परीचा मनुष्य स्वर्ण को पीतल एवं पीतल को स्वर्ण समझ धोखा खा बैठा है। ठीक यह कहावत हमारे लिये चरितार्थ होती है। हम आपके ऋण से उऋण हो ही नहीं सके क्योंकि आपने केवल हमारे जामात को ही जीवनदान नहीं दिया पर हम सब अज्ञानता के पुतलों को ज्ञान मार्ग का दिगदर्शन करा दिया-हमें भवोभव के लिए सुखी बना दिया-कर्त्तव्य च्युत होते हुए हमको कर्तव्य पथ दिखा दिया-इत्यादि अनेक उच्च शब्दों में राजा ने सरिजी के गुणों का गान किया और अन्त में नत मस्तक हो राजा ने प्राचार्य श्री से प्रार्थना की "हे भगShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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