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________________ [ ३२ ] की उपाधि ईश्वर अपने शिर लेता है तो वे ईश्वर ही किस बात के और उनमें ईश्वरता का ही क्या लक्षण रहा ? मानो.वे तो सब से अधिक दुःखी और प्रपंची ठहरते हैं पर वास्तव में यह कथन ज्ञानियों का नहीं पर अज्ञानियों का है सच्चिन्दानन्द परब्रह्म ईश्वर ऐसी झंझटों में कदापि निमित्त नहीं है । संसारी-जीव स्वयं कर्म करते हैं और उसके फल को स्वयं भोगते हैं जैसे किसी ने भांग पी है तो क्या उसका नशा ईश्वर द्वारा प्राता है ? नहीं, भांग के परमाणु ही उस नशा के कारण हैं इस भांति कर्म परमाणु ही जीवों को सुख दुःख प्रदान करते हैं।। - (५) जैन-जिन मूर्तियों को पूजते हैं वे परमत्याग मय परमध्यानमय संसार के बंधन मोचन की अन्तिमावस्था और वीतरागदशा की हैं। ऐसे परम वीतरागा. वस्था की उपासना करने से ही वीतरागदशा प्राप्त होती है न कि राग-द्वेष मोह विकार और क्रूरता-पूर्वक मूर्तियों की उपासना करने से । क्योंकि वे स्वयं रामद्वेषादि से निवृति नहीं पा सकी तो उपासकों को तो वह मिलेगी ही कहां से ? वास्तव में मूर्तियों की उपासना आत्म-विकास के लिये हो की जाती है। प्रात्म-विकास उन्हीं मूर्तियों द्वारा हो सकता है कि जिनकी आकृति में सम्पूर्ण विकासता का भाव लबालब भरा हो। (६) जैन-धर्म कायरों का धर्म नहीं है पर बहादुर वीरों का धर्म है। जैन-धर्म के उपदेशक एवं प्रचारक तीर्थकर चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव और बड़े २ राजा महाराजा वीर हुए हैं और उन्होंने वीरता से ही अभ्यन्तर शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर संसार की जंजीरों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034570
Book TitleOswal Vansh Sthapak Adyacharya Ratnaprabhsuriji Ka Jayanti Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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