________________
[ २५ ] के लिए साधक नहीं पर एक प्रकार का बाधक है। यदि गृहस्थ लोग इनका शुभक्षेत्र में उपयोग करें तो वे निश्चय से शुभ कर्मोपार्जन कर सकते हैं, पर निस्पृही त्यागियों के लिए तो यह एक कलंक स्वरूप ही है।
राजा मंत्री और नागरिक जन सूरीश्वरजी के ऐसे परम निस्पृहता सूचक शब्द श्रवण कर मन ही मन में आलोचना करने लगे। अहो! कहाँ तो अपने मठधारी लोभानन्दों की माया, ममता, तृष्णा और लोभ दशा ? कि द्रव्य प्राप्ति के हेतु अनेक प्रपंच और कुकृत्य करते रहते हैं और कहां! ये परम निस्पृही महात्मा कि द्रव्य का स्पर्श करने में भी महान् पाप समझते हैं इतना ही नहीं पर इस विशाल राज्य ऋद्धि पर भी इन्होंने लात मार दी है। धन्य है इनके त्याग और वैराग्य को।
प्राचार्य देव के त्याग, वैराग्य, तप और निस्पृहता ने जनता पर खूब ही प्रभाव जमाया । राजा एवं मंत्री ने पुनः नम्रता पूर्वक अरज की कि हे प्रभो ! हम अज्ञा. नियों को आप ठीक रास्ता बतलाइए कि हम आपके इस महान् उपकार से किस प्रकार उऋण हो सक्त हैं।
"भवद्भि जैन धर्मो गृहीतव्यः;" सूरिजी ने फरमाया कि हे राजन् ? हमने जो कुछ किया है वह तो हमारा कर्तव्य ही था, यदि आप इस भव व परभव में सुखी होना चाहते हैं तो आपके लिए सब से उत्तम मार्ग यही है कि आप सब लोग परम पुनीत जैन धर्म को स्वीकार कर इसका ही रुचि पूर्वक पालन करें उससे हम संतुष्ट हैं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com