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[ १४ ] प्राचार्य की श्राशातना हुई है। यह जान वह भूमि पर आया, और अपने अविनयपूर्ण अपराध की प्राचार्य श्री से क्षमा याचना की। सूरिजी ने उसे योग्य समझ देशना दी, जिसको श्रवण (पान) कर रत्नचूड़ ने संसार को असार समझ, वैराग्य भावना से प्रेरित हो राज्य वैभव त्याग अर्थात् अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज भार समर्पित कर ५०० विद्याधरों के साथ सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकार की और विनय, भक्ति पूर्वक ज्ञानाभ्यास करने लग गये। ( कई पहावलियो में आपका नाम मणिचड़ भी पाया जाता है)।
“क्रमेण द्वादशाङ्गी चतुर्दशपूर्वी बभूव गुरुणा स्वपदेस्थावीतः श्रीमद्वारजिनेश्वरात् द्विपंचाशत्वर्षे प्राचार्यपदे स्थापितः पंचशतसाधुभिः सह धरां विचरति ।”
क्रमशः द्वादशांगी ( चतुदर्श पूर्वादि ) का अध्ययन किया, गुरु महाराज ने रत्नचूड़ मुनि को सर्व प्रकार योग्य समझ वीर निर्वाण से आगे ५२ वें वर्ष में अपने पद पर स्थापित कर श्रापका नाम रत्नप्रभसूरि रक्खा । तत् पश्चात् रत्नप्रभसूरि ५०० मुनियों के साथ पृथ्वी मण्डल पर विहार कर अनेक भव्य जीवों का उद्धार करने लगे।
* निवेश्याथ सुतं राज्येऽनुज्ञाप्य च निजम् जनम् । विद्याधरपञ्चशतीयुक्तो व्रतमुपाददे ॥ २७ ॥
"उ० ग० च."
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