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________________ ( २८ ) जल्दी समाप्त करे और यह साधु जाता हुआ अपना बैर जहर को भी साथ ही संभाल कर ले जावे। ___यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि खरतर गच्छ में मुनि श्री तिलोकसागरजी और साधी पुन्य श्री जी की विद्यमानता में तपा एवं खरतरों में सर्वत्र प्रेम ऐक्यता बनी रही थी। इसका खास कारण यह था कि वे दोनों महापुरुष खरतरानुयायी होने पर भी अन्य गच्छियों के साथ अधिक प्रेम का वर्ताव रखते थे। वे अपने मन में समझते थे कि खरतरे तो हमारे हैं ही पर तपा गच्छादि अन्य गच्छीयों के साथ अच्छा वर्ताव रखा जाय तो एक तो वात्सल्यता भाव बढ़ता रहे दूसरे हमारी, हमारे गच्छ की, और हमारे प्राचार्यों की मान प्रतिष्ठा और गौरव भी बढ़ता जाय इत्यादि । उनके बाद अलवत वीरपुत्र आनन्द सागरजी और उन्हीं की आज्ञा वृति साध्वियों के लिए भी यह नहीं सुना गया कि उन्होंने किसी स्थान पर तपा खरतरों का झगड़ा फलाया हो पर हरिसागर और इनकी परिचित साध्वियां तो जहाँ गये वहाँ गच्छों का झगड़ा तो तैयार रहता ही है। इसमें कुछ जाति का भी असर अवश्य है। वीरपुत्रजी जाति के ओसवाल हैं तब हरिसागर जाट हैं। अतएव जैनधर्म का गौरव जितना ओसवालों को है उतना जाटों को नहीं है। यही कारण है कि पूर्वाचार्यों ने मर्यादा बाँध दी थी कि आचार्य पद ओसवाल ज्ञाति वालों को ही दिया जाय । विचारा जाट बुट प्राचार्यपद की महत्वता को क्या जान सके ? देखिये मुनि श्री तिलोक्य सागरजी, साध्वीजी पुन्य श्री और वीरपुत्र आनन्दसागरजी ने खरतरों के अलावा हजारों अन्य गच्छीयों को दादाजी के चरणों में मुका दिया तब हरिसागरजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034563
Book TitleNagor Ke Vartaman Aur Khartaro Ka Anyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktisagar
PublisherMuktisagar
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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