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गुरूका स्वरूप.
जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य . और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत धारण करते हैं और उनका शुद्ध रूपसे पालन करते हैं, और ईस्से जो प्रतिकुळ पंच अब्रत करते नहीं, दूसरे किसीसे कराते नहीं, और करनेवालेको अनुमोदते नहीं, वे अपने जैन धर्ममें साधू गिने जाते हैं. अनेक भ्रांतिके संकटोंमें पड जाने परभी वे अपने महाब्रतमें किसी तरहका दोष नहीं आने देते हैं, बियालीस दोषोंसे रहित और माधुकरी वृत्तिसे भिक्षा लाकर शरीरके निर्वाहके लिये आहार करते हैं, धर्म साधनके खिलाफ इंद्रियोंके भोगके लिये ये किसी भी प्रकारका संग्रह नहीं करते है, वे रागद्वेषके परिणामसे रहित मध्यस्थ वृत्तिमें रहकर स्वयं मुमुक्षु होने के कारण मोक्षाभिलाषी जीवोंके उपकारके वास्ते सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चरित्ररूप अरिहंत परमात्माका निर्माण किया हुआ और कहा हुआ धर्मोंका निरंतर उपदेश करते हैं. ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, वैद्यकशास्त्र आदि द्रव्योपार्जन के शास्त्र तथा राज्य प्रपंचके विचार बनाकर धर्ममें विघ्न डालने वाले किसी प्रकार के उपदेश नहीं देते हैं; वे क्षमा, नम्रता, आर्जव, संतोष, तपश्चर्या संयम, अकिंचन, ब्रह्मचर्य, सत्य, और शौच इन दश प्रकार यतिधर्मोका निरंतर यथार्थ रूपसे पालन करते हैं; राजकथा, देशकथा, स्त्री कथा, और भोजन कथा ये चारों बिकथाओं कभी नहीं करते; परंतु अपना सारा समय धर्मकथा और आत्मसाधनहीमें व्यतीत करते हैं; क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, मान, अपमान आदि वाईस प्रकारके परिषहों को सम्यक् रीतिसे सहन करते हैं, और चारित्र में कोई तरह की बाधा नहीं आने देते है, मनुष्य और तिर्यंचके किये हुए ऊपसर्गौौंको धैर्यसे सहन करते हैं, ऐसे साधुओंको जैनधर्ममें गुरु मानते हैं.
धर्मका स्वरूप.
श्री सर्वज्ञ भगवान सर्व विरति और देशविरति ये दो प्रकारके धर्म कहे हैं. सर्व विरति जो हैं वह मुनि महाराजका धर्म है. और देशविरति श्रावकों का धर्म है. पांचों इंद्रियों और मनको पुदगलिक स्त्रभाव में न जाने देकर उनको दबावमें रखना, और पांच प्रकारके स्थावर तथा त्रस इन छ प्रकारके जीवोंकी निरंतर रक्षा करना यह बारह प्रकारकी अविरति का त्याग करना यही सर्व विरति धर्म है.
शुद्ध देव, गुरु, धर्मकी सम्यक् श्रद्धासहित बारह व्रतोंको पालन करना यह देशविरति धर्म कहा जाता है; स्थूल हिंसाका त्याग यह प्रथम ब्रत, पांच प्रकारके स्थूल असत्यका त्याग यह दूसरा व्रत; चोरी नहीं करना यह तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत, अपनी स्त्रीमें संतोषकर परस्त्रीका त्याग यह चौथा स्थूल ब्रह्मचर्य व्रत, धनधान्यादि नव प्रकार के प्ररिग्रहकी इच्छाका परिमान अथवा जितना प्राप्त हो उसीमें संतोष रखना यह पांचवा स्थूल परिग्रह प्रमाण व्रत, दशों दिशाओंमें जाने आनेके प्रमाण यह छठा दिशि परिमाण व्रत, बाईस अभक्ष्य, बत्तीस अनंतकाय तथा रात्रीं भोजनका त्याग और पंद्रह प्रकारके कर्मादानका त्याग यह भोगोपभोगके परिमाण रूप सातवां व्रत, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, पापोपदेश, जिससे हिंसा हो ऐसी वस्तु दूसरेको देना, और प्रमादाचरण इनका विरमण व्रत, रागद्वेषररित होकर मध्यस्थ वृत्तिसे सम्यक्ज्ञान, धर्ममें दो घडी स्थिर रहना यह नवमां सामायक व्रत, क्षेत्र मर्यादाका प्रतिबंध कर
त्यागरूप आठवां अनर्थदंड दर्शन चारित्रका आराधनरूप
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