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मारवाड़ का इतिहास रास के ठाकुरों के उसके साथ थी । आउवे का ठाकुर तो पहले ही बचकर निकल गया, परन्तु छठे दिन किलेवालों के भी निकल जाने पर वहां पर उनका अधिकार हो गया। इसके बाद वहां का किला, महल, कोट और मकानात नष्ट करदिए गए । इसी प्रकार आउवे के भाई-बन्धुओं के गांव भीवालिया आदि की गढियां भी सुरंगे लगा कर उड़ा दी गईं और वहां के ठाकुर भाग कर मेवाड़ की तरफ़ चले गए।
वि० सं० १९१५ की प्रथम ज्येष्ठ सुदि १२ ( ई० स० १८५८ की २४ मई ) से राजपूताने की रियासतों के सिक्कों में बादशाह के नाम की जगह महारानी विक्टोरिया का नाम लिखे जाने का प्रबन्ध किया गया; क्योंकि सिपाही विद्रोह के शान्त होने पर महारानी विक्टोरिया ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया था।
वि० सं० १९१५ के पौष ( ई० स० १८५६ की जनवरी ) में महाराज ने शाहबाजखाँ को अपना दीवान बनाया ।
वि० सं० १९१६ के कार्तिक (ई० स० १८५६ के अक्टोबर ) में किशनगढ़ में झगड़ा उठ खड़ा हुआ । यह देख वहां के नरेश ने महाराज से सहायता मांगी। इस पर महाराज ने परबतसर और मारोठ के अपने हाकिमों और सरदारों को आज्ञा भेज दी कि जिस समय किशनगढ़-महाराज को सहायता की आवश्यकता हो, उसी समय ससैन्य वहां पहुँच उनकी आज्ञा का पालन किया जाय ।
यद्यपि वि० सं० १९१४ (ई० स० १८५७ ) से ही राजकीय सेनाएं मारवाड़ के बागी सरदारों के पीछे लगी हुई थीं, तथापि मौका मिलते ही वे इधर-उधर लूटखसोट मचादिया करते थे । अन्त में, वि० सं० १९१७ के प्रथम आश्विन (ई० स० १८६० के सितम्बर ) में, आउवे के ठाकुर ने अपने को अंगरेजी सरकार के हाथों सौंप कर इन्साफ़ की प्रार्थना की । इस पर अजमेर में एक फ़ौजी अदालत बिठाई गई,
और उसने सारी बातों की छान-बीन कर उसे पोलिटिकल एजैंट कैपटिन मेसन की हत्या में सम्मिलित होने के अपराध से बरी कर दिया। इसके साथ ही गवर्नमैन्ट ने जोधपुरमहाराज से आउवा, आसोप आदि के सरदारों पर दया दिखलाने की प्रार्थना भी की।
१. सरकारी रोज़नामचे में वि० सं० १६१६ की जेठ सुदि ८ (ई० स० १८५६ की ___८ जून ) को शहबाज़खाँ को दुबारा दीवानी का काम दिया जाना लिखा है। २. किशनगढ-नरेश ने, वहां के स्वर्गवासी महाराजा प्रतापसिंहजी के बाभा (परदे डाली
हुई स्त्री-उपपत्नी के पुत्र ) ज़ोरावरसिंह के लड़के मोतीसिंह को कैद कर दिया था। इसीसे उसके आदमियों ने उपद्रव शुरू किया था।
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