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मारवाड़ का इतिहास के वैशाख (ई० स० १८४३ के अप्रेल ) में, उसने दो उपद्रवी नाथों को पकड़ कर अजमेर भेजदिया । इस समाचार को सुन महाराज बहुत दुखी हुए । पहले तो इन्होंने मि० लडलो से मिलकर उन नाथों को छुड़वाने का विचार किया, परन्तु अन्त में वकील रिधमल के समझाने से यह विचार छोड़ दिया । इस घटना से महाराज के चित्त में इतनी ग्लानि हुई की इन्होंने दो दिनों तक भोजन नहीं किया, और फिर वैशाख वदि । (२३ अप्रेल ) को संन्यास लेकर नाज खाना छोड़ दिया । इसके बाद यह ( महाराजा) कुछ दिनों इधर-उधर घूमकर पाल पहुँचे । इनका इरादा वहां से जालोर होकर गिरनार की तरफ जाने का था । परन्तु मि० लडलो ने वहाँ पहुँच इन्हें समझाया कि यदि आप मारवाड़ छोड़ कर चले जायेंगे तो लाचार होकर हमैं दूसरा नरेश गद्दी पर बिठाना पड़ेगा; क्योंकि राज्य बिना राजा के नहीं रह सकता । ऐसी हालत में आपका जोधपुर में रहना अत्यावश्यक है । इस पर यह वहां से लौट कर, आषाढ़ सुदि ४ (१ जुलाई) को, जोधपुर चले आए और नगर के बाहर राईकेबाग में ठहरे । यहीं पर इन्होंने मि० लडलो से अपने पीछे अहमदनगर से तखतसिंहजी को लाकर गोद बिठाने की इच्छा प्रकट की' ।
इसके बाद सावन सुदि ३ (२६ जुलाई) को यह मंडोर चले गए। वहीं पर वि० सं० १९०० की भादों सुदि ११ (ई० स० १८४३ की ४ सितम्बर) को रात्रि में महाराज का स्वर्गवास होगया ।
१. ख्यातों में लिखा है कि महाराज-कुमार छत्रसिंहजी के मरने पर, सरदारों की मिलावट से,
ईडर-नरेश उनके गोद बैठने को उद्यत हो गए थे। इसीसे महाराज उनसे नाराज़ थे । परंतु मोडास के ठाकुर ज़ालिमसिंह ने महाराज के जालोर का किला खाली करने का विचार करने के समय इनके कुटुम्ब को अपने यहां सुरक्षित रखने की प्रतिज्ञा की यी, इसीसे यह उससे प्रसन्न थे, और तखतसिंहजी के उनकी शाखा में होने से उन्हें अपना
उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। २. ख्यातों में लिखा है कि उस दिन महाराज सुफ़ेद वस्त्र अोढकर लेट गए और सबसे कह
दिया कि दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्मण लोग भीतर आकर हमारे शरीर को संभालें, उसके
पहले कोई भीतर न आए। महाराज के साथ १ रानी ४ परदायतें और १ दासी सती हुई ।
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