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महाराजा मानसिंहजी ११. जोधपुर में ब्रिटिश-एजेंट के रखे जाने से अब आगे न तो किसी पर सख़्ती
होने दी जायगी, न ६ धार्मिक सम्प्रदायों के मामलों में हस्ताक्षेप होगा और न मारवाड़ में पवित्र समझे जानेवाले जानवरों ( मोर, कबूतर, गाय आदि)
का बध ही किया जायगा। १२. यदि राज्य का प्रबन्ध ६ महीनों, १२ महीनों या १८ महीनों में ठीक तौर से
हो जायगा तो पोलिटिकल-एजेंट और सेना किले पर से हटाली जायगी । यदि यह प्रबन्ध इससे पहले ही हो जायगा तो गवर्नमैंट को बड़ी प्रसन्नता
होगी और वह इसे नेकनामी का कारण समझेगी । १३. यह अहदनामा जोधपुर में २४ सितंबर १८३६ ( वि० सं० १८१६ की
आश्विन वदि १) को लै फ़्टिनेंट-कर्नल सदरलैंड द्वारा निश्चित होकर गवर्नरजनरल के पास मंजूरी या रद्दोबदल के लिये भेजा जायगा, और वहां से
महाराजा के नाम ( इस विषय का ) खरीता भिजवाया जायगा । इसके बाद आश्विन वदि ६ (२८ सितंबर) को जोधपुर का किला अंगरेजी सेना को सौंप दिया गया । परंतु सामान आदि की रक्षा के लिये १०० आदमी महाराज की तरफ़ के भी वहां रहे । गवर्नमेंट की सेना के करीब ३५० सैनिक तो किले में ठहरे और बाकी के मंडोर और बालसमंद के बीच ( किले से करीब ५ मील के फासले पर ) रहे।
कर का रुपया वसूल हो जाने पर गवर्नमैंट ने सांभर और नांवा के नमक के दरीबे दरबार को लौटा दिए। इसके बाद पहले की सूची के अनुसार सरदारों की जागीरें
१. इस संधि पर महाराज की तरफ़ से लोढा राव रिधमल और सिंघी फौजमल ने
हस्ताक्षर किए थे । ( यह संधि कर्नल सदरलैंड ने, जिसको भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड
ऑकलैंड की तरफ से अधिकार मिला था, की थी। ) २. भटनोखा के करमसोत राठोड़ भोमसिंह ने, जो किले पर था, वहां पर अंगरेज़ों के अधि
कार को होते देख पोलिटिकल-एजेंट मिस्टर लडलो पर एकाएक तलवार से हमला कर दिया। परंतु सिपाहियों ने, उस पर वार कर, उसे घायल कर डाला। इससे चार पांच दिन बाद ही उसकी मृत्यु हो गई । मि० लडलो के मामूली चोट लगी थी । महाराज के दुःख
प्रकट करने पर यह मामला यहीं शांत हो गया । ३. कुछ दिन बाद ही बाहर के सैनिक जोधपुर से हटा लिए गए ।
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