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मारवाड़ का इतिहास
उपर्युक्त नियमों के अलावा यदि किसी व्यक्ति के लिये दरबार की तरफ़ का कोई खास हुक्म होता है तो उसका पालन करना भी आवश्यक समझा जाता है।
चाकरी पहले किसी शक्तिशाली नियामक सत्ता के न होने से छोटे-बड़े सब प्रकार के भू-स्वामी अपने अधिकारों की रक्षार्थ अथवा उनके प्रसार के लिये बहुधा युद्धों में लगे रहते थे। इसी से अन्य प्रदेशों की तरह मारवाड़ में भी जागीरदारी की प्रथा प्रचलित थी । राजा लोग अपने भाइयों, बन्धुओं, सम्बन्धियों और अनुयायियों को कुछ भू-भाग देकर जागीरदार बना लिया करते थे और वे लोग अपने नरेशों की आज्ञा मिलते ही दल-बल सहित सेवा में प्रा-उपस्थित होते थे । इसी प्रकार ये जागीरदार भी अपना जन-बल दृढ रखने के लिये अपने भाइयों और बन्धुओं को अपने अधीन के प्रदेश का कुछ भू-भाग दे दिया करते थे और समय आने पर उन्हें अपनी अयत्रा अपने स्वामी की सेवा के लिये बुला लिया करते थे। इस प्रकार के प्रबन्ध के कारण ही उस समय राजाओं को युद्ध के लिये अपने निज के वेतन-भोगी सैनिक रखने की अधिक आवश्यकता नहीं होती थी ।
परन्तु महाराजा विजयसिंहजी के समय जागीरदारों के बागी हो जाने से राज्य की रक्षा के लिये विदेशी वेतन-भोगी सेना का रखना आवश्यक हो गया और इसके द्वारा उद्धत जागीरदारों और उनके अनुयायियों को दबाने में मिली सफलता को देख महाराजा मानसिंहजी ने इसकी संख्या बढ़ा कर २२,००० तक पहुँचा दी । अन्त में वि० सं० १८१६ (ई० स० १८३१ ) में यहां पर अजंटी के कायम हो जाने से जब भीतरी फसाद दब गया, तब इस सेना की संख्या घटा कर करीब सवा हजार सवार और पौने चार हजार पैदल कर दी गई और इसके बाद आगे भी उसकी संख्या बराबर घटती रही । इसके बाद वि० सं० १९४५ (ई० स० १८८१ ) में, महाराजा जसवन्तसिंहजी ( द्वितीय ) के समय, आधुनिक ढंग पर सरदार-रिसाले की स्थापना की गई और वि० सं० १९७९ (६० स० १९२२) में सरदार इन्फैटी कायम हुई।
१. उस समय आधी 'इन्फंट्री' तैयार की गई थी और वि० सं० १९८३ (ई० स० १६२६)
में यह पूरी कर दी गई ।
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