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मारवाड़ का इतिहास
वि० सं० १७६५ की सावन सुदी १३ (ई० सन् १७०८ की १९ जुलाई) को महाराज ने मेहराबखाँ को भगाकर जोधपुर के किले पर फिर से अधिकार कर लिया, और इसके कुछ दिन बाद यह आंबेर-नरेश जयसिंहजी को साथ लेकर अजमेर को लूटते हुए सांभर जा पहुँचे । यह देख वहां का हाकिम सैयद अलीअहमद युद्ध के लिये तैयार हुआ । नारनौल के सैयद भी उसकी सहायता को आ गए । कुछ दिनों तक दोनों पक्षों के बीच विकट युद्ध होने के बाद यवन भाग चले, और सांभर पर महाराज का अधिकार हो गया । इसी बीच महाराज अजितसिंहजी और जयसिंहजी
१. 'अजितोदय' सर्ग १७, श्लो० ३४-३५ । 'लेटरमुगल्स' में लिखा है कि महाराज ने
जोधपुर को ३. हज़ार सवारों से घेर कर विजय किया था, और दुर्गादास राठोड़ के बीच में पड़ने से जोधपुर के फ़ौजदार मेहराबखाँ को निकल जाने का मौका दिया था। (देखो
भा० १, पृ० ६७)। २. यह महाराज के साथ आकर जोधपुर में सूरसागर के बगीचे में ठहरे थे। ३. अजितोदय, सर्ग १७, श्लो० ३६-५० । 'राजरूपक' में इस घटना का कार्तिक सुदी १ को
होना और इसके अगले मास में दोनों नरेशों का आँबेर पर अधिकार करना लिखा है । ( देखो पृ० १८२ ) ख्यातों में लिखा है कि यहीं पर महाराज किसी बात पर दुर्गादास से कुछ अप्रसन्न हो गए । यह देख दुर्गादास ने महाराज से निवेदन किया कि नर्मदा मे लौटते हुए आप कुछ दिन उदयपुर में उहरे थे, और महाराना ने आपका अच्छी तरह से स्वागत किया था। इसलिये यदि आज्ञा हो, तो मैं जाकर महाराना को कुछ दिन के लिये यहाँ ले आऊँ; जिससे आप भी उनका वैसा ही सम्मान कर आपस की प्रीति को बढ़ावें । महाराज ने इस बात को अंगीकार कर लिया। इस पर वह महाराना को ले आने के बहाने म उदयपुर चला गया और वि० सं० १७६६ में सफरा नदी के किनारे इस वीर का स्वर्गवास हो गया । परंतु वास्तव में दुर्गादास का देहांत वि० सं० १७७५ के करीब हुआ
था । अतः ख्यातों का यह लेख ठीक नहीं है। ख्यातों में यह भी लिखा मिलता है कि दुर्गादास ने ( अपने को बादशाही मनसबदार समझ ) माँभर में अपना डेरा महाराज की सेना से अलग किया था, इसी से महाराज उससे नाराज़ हो गए थे । यह भी संभव है कि जोधपुर और जयपुर के नरेशों को साँभर का विभाग करते देख दुर्गादास ने भी हिस्सा मांगा हो, और यही महाराज की अप्रमन्नता का कारण हुआ हो । वि० सं० १७६५ की कार्तिक सुदी १५ के, साँभर से लिखे, भंडारी बिट्ठलदास के, बीलाड़े के चौधरी भगवानदास के नाम के, पत्र से ज्ञात होता है कि कार्तिक बदी १३ को महाराज की सेना साँभर पहुँची । वहाँ पर युद्ध होने पर अली अहमद हारा, और उसने एक लाख बीस हज़ार रुपये देने का वादा कर इनसे संधि कर ली। इसके बाद कार्तिक सुदी १ को नारनौल, मथुरा और आँबेर के सूबेदार ? (फौजदार ) ५-६ हज़ार मेना लेकर वहाँ पहुँचे । परन्तु तीसरे पहर के युद्ध में वे तीनों मय तीन हज़ार सैनिकों के मारे गए । उनकी सेना के बहुत-से हाथी, घोड़े, ऊँट, सुखपाल आदि महाराज की सेना के हाथ लगे।
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