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________________ महाराजा जसवंतसिंहजी (प्रथम) फिर सजग हो गईं, जिससे महाराष्ट्र-वीरों का उपद्रव बहुत कुछ शांत हो चला और उधर महाराज के समझाने से शिवाजी ने भी शाहजादे मुअज्जम से मेल करना स्वीकार कर लिया । ख्यातों से ज्ञात होता है कि इसी के अनुसार महाराज के सरदार राठोड़ रणछोड़दास आदि राजगढ़ में जाकर शिवाजी से मिले और उनके पुत्र शंभाजी को साथ लेकर मँगसिर वदि ५ को शाहजादे के पास चले आए । महाराज के कहने से शाहजादे ने भी शंभाजी का अच्छा आदर सत्कार किया और शिवाजी को राजा मानकर उनका बहुत सा प्रदेश वापस लौटा दिया । इसी के साथ उन्हें बराड़-प्रदेश में भी जागीर दी गई । इस प्रकार गुप्त-संघि हो जाने के बाद शंभाजी वापस लौट गए। वि० सं० १७२६ के ज्येष्ठ ( ई० स० १६६६ की मई ) में औरङ्गजेब को सूचना मिली कि शाहज़ादा मुहम्मद मुअज़्ज़म महाराज जसवन्तसिंहजी की सहायता से स्वाधीन होने का विचार कर रहा है । इस पर उसने तत्काल ही उसकी माता को उसे समझाने के लिये भेज दिया। इसके अगले ही वर्ष बादशाह ने महाराज को दक्षिण से वापस बुलवा लिया और वि० सं० १७२८ की ज्येष्ठ वदि ८ ( ई० स० १६७१ की २१ मई) को इन्हें बरसाती खिलअत और ५०० मोहर की कीमत का घोड़ा देकर जमरूद के थाने की रक्षा के लिये रवाना कर दिया । इस पर महाराज भी अपने दल १. ख्यातों में लिखा है कि इसी वर्ष बादशाह ने अपने अधीन देशों के चौपाए जानवरों पर कर लगाया था । परन्तु महाराज के खयाल से मारवाड़ के चौपाए छोड़ दिए गए थे। इस पर महाराज ने इसकी एवज़ में यहाँ पर अपनी तरफ से 'घासमारी' (मवेशियों के सरकारी चरागाहों में चरने पर कर लेने) की प्रथा प्रचलित की। यह प्रथा इस देश में अब तक जारी है । साथ ही महाराज ने गुजरात में मिले अपने मनसब के प्रदेशों में भी अपने आदमी भेज कर इस कर का प्रचार किया। २. श्रीयुत जदुनाथ सरकार ने अपनी 'हिस्ट्री ऑफ़ औरंगजेब' में लिखा है: शिवाजी ने महाराज जसवंतसिंह को पत्र लिखकर बादशाह से संधि करने में उनकी सहायता चाही । इस पर महाराज और शाहज़ादे ने मिलकर इस विषय में ई० सन् १६६८ की ६ मार्च (वि० सं० १७२५ की चैत्र सुदि ६) को बादशाह को लिखा । अतः उसने भी शिवाजी को राजा मानकर संधि अंगीकार करली । यह संधि दो वर्ष तक रही । उक्त पत्र में शिवाजी ने अपने पुत्र शंभु को शाहज़ादे के पास भेजने का भी लिखा था। इस संधि के हो जाने के बाद भी बादशाह ने सिवा चकन दुर्ग के और कोई किला शिवाजी को नहीं लौटाया । ( देखो भा० ४, पृ० ६८१)। ३. मासिरे आलमगीरी, पृ० १०६ । परन्तु वि० सं० १७३० की ज्येष्ठ सुदि १४ के महाराज के एक पत्र से उस समय इनका नर्बदा पर होना प्रकट होता है । २३६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034553
Book TitleMarwad Ka Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishweshwarnath Reu
PublisherArcheaological Department Jodhpur
Publication Year1938
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size369 MB
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