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पञ्चम अध्याय ।
सातवाँ प्रकरण। ऐतिहासिक व पदार्थविज्ञानवर्णन ।
ऐतिहासिक तथा पदार्थविज्ञान की आवश्यकता। सम्पूर्ण प्रमाणों और महजनों के अनुभव से यह बात भली भाँति सिद्ध हो चुकी है कि-मनुष्य के सदाचारी वा दुराचारी बनने में केवल ज्ञान और अज्ञान ही कारण होते है अर्थात् अन्तःकरण के सतोगुण के उद्भासक (प्रकाशित करनेवाले) तथा तमोगुण के आच्छादक (ढाँकनेवाले) यथेष्ट साधनों से ज्ञान की प्राप्ति होने से मनुष्य सदाचारी होता है तथा अन्तःकरण के तमोगुण के उद्भासक और सतोगुण के आच्छादक यथेष्ट साधनों से अज्ञान की प्राप्ति होने से मनुष्य दुराचारी (दुष्ट व्यवहार वाला) हो जाता है।
प्रायः सब ही इस बात को जानते होगे कि-मनुष्य सुसंगति में पड़ कर सुधर जाता है तथा कुसङ्गति में पड़ कर बिगड़ जाता है, परन्तु कभी किसी ने इस के हेतु का भी विचार किया है कि-ऐसा क्यों होता है ? देखिये ! इस का हेतु विद्वानों ने इस प्रकार निश्चित किया है:
अन्तःकरण की-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, ये चार वृत्तियाँ हैं, इन में से मन का कार्य संकल्प और विकल्प करना है, बुद्धि का कार्य उस में हानि लाभ दिखलाना है, चित्त का कार्य किसी एक कर्तव्य का निश्चय करा देना है तथा अहङ्कार का कार्य अहं (मैं) पद का प्रकट करना है। .. यह भी स्मरण रहे कि अन्तःकरण सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण रूप है, अर्थात् ये तीनों गुण उस में समानावस्था में विद्यमान हैं, परन्तु इन (गुणों) में कारणसामग्री को पा कर न्यूनाधिक होने की स्वाभाविक शक्ति है।
जब किसी मनुष्य के अन्तःकरण में किसी कारण से किसी विषय का उद्भास (प्रकाश) होता है तब सब से प्रथम वह मनोवृत्ति के द्वारा संकल्प और विकल्प करता है कि-मुझे यह कार्य करना चाहिये वा नहीं करना चाहिये, इस के पश्चात् बुद्धिवृत्ति के द्वारा उस ( कर्त्तव्य वा अकर्त्तव्य) के हानि लाभ को सोचता है, पीछे चित्तवृत्ति के द्वारा उस (कर्त्तव्य वा अकर्त्तव्य ) का निश्चय कर लेता है तथा पीछे अहङ्कारवृत्ति के द्वारा अभिमान प्रकट करता है कि मैं इस कार्य का कर्ता ( करनेवाला) वा अकर्ता (न करनेवाला) हूँ। __ यदि यह प्रश्न किया जावे कि-किसी विषय को देख वा सुन कर अन्तःकरण की चारों वृत्तियां क्यों क्रम से अपना २ कार्य करने लगती हैं तो इस का उत्तर यह
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