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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
प्रथम तो गुजराती जन हुए, इस पर भी "काल में अधिक मास" वाली कहावत चरितार्थ हुई अर्थात् उनको कुगुरुओं ने शुद्ध मार्ग से हटा कर विपरीत मार्ग पर चला दिया, इस का परिणाम यह हुआ कि वे अपने नित्य के पाठ करने के भी परमात्मा वीर के इस उपदेश को कि- "मित्ती मे सब्ब भूएसु बेर मज्झं न केण इ" अर्थात् मेरी सर्व भूतों के साथ मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर ( शत्रुता ) नहीं है, मिथ्याभिमानी और कुगुरुओं के विपरीत मार्ग पर चला देने से भूल गये, वा यों कहिये कि - बम्बई में जब दूसरी कान्फ्रेंस हुई उस समय एक वर्ष की बालिका सभा की वर्षगाँठ के महोत्सव पर श्री महावीर स्वामी के उक्त वचन को उन्हों ने एकदम तिलाञ्जलि दे दी, यद्यपि ऊपर से तो एकता २ पुकारते रहे परन्तु उन का भीतरी हाल जो कुछ था वा उस का प्रभाव अब तक जो कुछ है उसका लिखना अनावश्यक है, फिर उस का फल तो वही हुआ जो कुछ होना चाहिये था, सत्य है कि - " अवसर चूकी डूमणी, गावे आल पंपाल" प्रिय वाचकवृन्द ! इस बात को आप जानते ही हैं कि - एक नगर से दूसरे नगर को जाते समय यदि कोई शुद्ध मार्ग को भूल कर उजाड़ जंगल में चला जावे तो वह फिर शुद्ध मार्ग पर तब ही आ सकता है, जब कि कोई उसे कुमार्ग से हठा कर शुद्ध मार्ग को दिखला देवे, इसी नियम से हम कह सकते हैं कि-सभा के कार्यकर्ता भी अब सत्पथ पर तब ही आ सकते हैं जब कि कोई उन्हें सत्पथ को दिखला देवे, चूँकि सत्पथ का दिखलाने बाला केवल महज्जनोपदेश ( महात्माओं का उपदेश ) ही हो सकता है इस लिये यदि सभा के कार्यकर्ताओं को जीवनरूपी रंगशाला में शुद्ध भाव से कुछ करने की अभिलाषा हो तो उन्हें परमात्मा के उक्त वाक्य को हृदय में स्थान दे कर अपने भीतरी नेत्र खोलने चाहिये, क्योंकि जब तक उक्त वाक्य को हृदय 'स्थान न दिया जावेगा तब तक उन्नति स्थान को पहुँचानेवाला एकतारूपी शुद्ध मार्ग हमारी समझ में स्वप्न में भी नहीं मिल सकता है, इस लिये कान्फ्रेंस के सभ्यों से तथा सम्पूर्ण आर्यावर्तनिवासी वैश्य जनों से हमारी सविनय प्रार्थना है कि - "मेरी सब भूतों से मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर नहीं है" इस भगवद्वाक्य को सच्चे भाव से हृदय में अङ्कित करें कि जिस से पूर्ववत् पुन: इस आर्यावर्त देश की उन्नति हो कर सर्वत्र पूर्ण आनन्द मङ्गल होने लगे । यह पञ्चम अध्याय का चौरासी न्यातवर्णन नामक छठा प्रकरण समाप्त हुआ ॥
१- शुद्ध मार्ग पर जाते हुए पुरुष को विपरीत मार्ग पर चला देनेवाले को ही वास्तव में कुगुरु समझना चाहिये, यह सब ही ग्रन्थों का एक मत है ॥ २ - हमारा यह कथन कहाँ तक सत्य है, इस का विचार उक्त सभा के मर्म को जाननेवाले बुद्धिमान् ही कर सकते हैं | ३- इस विषय को लेख के बढ़ जाने के कारण यहाँ पर नहीं लिख सकते हैं, फिर किसी समय पाठकों की सेवा में यह विषय उपस्थित किया जावेगा ॥ ४- इस कथन के आशय को सूक्ष्म बुद्धिवाले पुरुष ही समझ सकते हैं किन्तु स्थूल बुद्धिवाले नहीं समझ सकते हैं ॥
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