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पञ्चम अध्याय ।
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के इतिहास में उन का नाम सोने के अक्षरों में अङ्कित होकर देदीप्यमान हो रहा है और सदा ऐसा ही रहेगा, बस इन्हीं सब बातों को सोच कर मनुष्य को यथाशक्ति शुभ कार्यों को करके उन्हीं के द्वारा अपने नाम को सदा के लिये स्थिर कर इस संसार से प्रयाण करना चाहिये कि-जिस से इस संसार में उस के नाम का सरण कर सब लोग उस के गुणों का कीर्तन करते रहे और परलोक में उस को अक्षय सुख का लाभ हो । यह पञ्चम अध्याय का पोरवाल वंशोत्पत्तिवर्णन नामक दूसरा
प्रकरण समाप्त हुआ।
तीसरा प्रकरण । खंडेलवाल जातिवर्णन।
खंडेलवाल ( सिरावगी) जाति के ८४ गोत्रों के होने
का संक्षिप्त इतिहास । श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से ६०९ (छः सौ नौ) वर्ष के पश्चात् दिगम्बर मतं की उत्पत्ति सहस्रमल्ल साधु से हुई, इस मत में कुमदचन्द्रनामक एक मुनि बड़ा पण्डित हुआ, उस ने सनातन जैन धर्म से चौरासी बोलों का मुख्य फर्क इस मत में डाला, इस के अनन्तर कुछ वर्ष वीतने पर इस मत की नींव का पाया जिनसेनाचार्य से दृढ़ हुआ, जिस का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है किखंडेला नगर में सूर्यवंशी चौहान खंडेलगिरि राज्य करता था, उस समय अपराजित मुनि के सिंगाड़े में से जिनसेनाचार्य ५०० ( पाँच सौ ) मुनियों के परिवार
१-यह मत सनातन जैनश्वेताम्बर धर्म में से ही निकला है, इस मत के आचार्यों तथा साधुओं ने नग्न रहना पसन्द किया था, वर्तमान में इस मत के साधु और साध्वी नहीं हैं अतः श्रावकों से ही धर्मोपदेश आदि का काम चलता है, इस मत में जो ८४ बोलों का फर्क डाला गया है उन में मुख्य ये पाँच बातें हैं- १-केवली आहार नहीं करे, २-वस्त्र में केवल ज्ञान नहीं है, ३-स्त्री को मोक्ष नहीं होता है, ४-जैनमत के दिगम्बर आम्नाय के सिवाय दूसरे को मोक्ष नहीं होता है, ५-सब द्रव्यों में काल द्रव्य मुख्य है, इन बोलों के विषय में जैनाचार्यों के बनाये हुए संस्कृत में खण्डन मण्डन के बहुत से ग्रन्थ मौजूद हैं परन्तु केवल भाषा जाननेवालों को यदि उक्त विषय देखना हो तो विद्यासागर न्यायरत्न मुनि श्री शान्तिविजय जी का बनाया हुआ मानवधर्मसंहिता नामक ग्रन्थ तथा स्वर्गवासी खरतरगच्छीय मुनि श्री चिदानन्द जी का बनाया हुआ स्याद्वादानुभवरत्नाकर नामक ग्रन्थ ( जिस के विषय में इसी ग्रन्थ के दूसरे अध्याय में हम लिख चुके हैं ) देखना चाहिये ।
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