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पञ्चम अध्याय ।
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लिखते हैं- देखिये ! राज के खजाने का काम करने से लोगों को सब लोग खजांची कहने लगे तथा उन की औलादवाले लोग भी खजांची कहलाये, राज के कोठार का काम करने से लोगों को सब लोग कोठारी कहने लगे और उन की औलाद वाले लोग भी कोठारी कहलाये, राज में लिखने का काम करने से कोचरों को फलोधी मारवाड़ में सब लोग 'कानूंगा कहने लगे ( वे अब 'कानुंगा' कहलाते हैं ) छाजेड़ों को बीकानेर में निरखी का खिताब है तथा बेगाणियों को भी निरखी तथा मुसरफ का खिताब मिला अतः वे उक्त नामों से ही पुकारे जाते हैं, इसी प्रकार बाठियों में से हरखा जी की औलादवाले लोग हरखावत कहलाये, ऐसे ही बोथरों के गोत्रवाले लोग बीकानेर में मुकीम और साह भी कहलाते हैं, राखेचा गोत्रवाले कुछ घर पूगल को छोड़ कर अन्यत्र जा वसे थे अतः उन को सब लोग पूगलिया कहने लगे, वेगवाणी गोत्र का एक पुरुष मकसूदाबाद में गया था उस के शरीर पर रोम ( बाल ) बहुत थे अतः वहाँ वाले लोग उस को "रुँवाल जी" कह कर पुकारने लगे, इसी लिये उस की औलाद वाले लोग भी रुँवाल कहलाये, बहूफणा गोत्रवाले एक पुरुष ने पटवे का काम किया था अतः उस की औलादवाले लोग पटवा कहलाये, फलोधी में झावक गोत्र का एक पुरुष शरीर में बहुत दुबला था इस लिये सब लोग उस को मड़िया २ कह कर पुकारते थे इस लिये अब उस की औलादवाले लोग वहाँ मड़िया कहलाते हैं, इस रीति से ओसवालों में बलाई चण्डालिया और बंभी ये भी नख हैं, ये (नख ) किसी नीच जाति के हेतु से नहीं प्रसिद्ध हुए हैं - किन्तु बात केवल इतनी थी कि इन लोगों का उक्त नीच जातिवालों के साथ व्यापार ( रोज़गार ) चलता था, अतः लोगों ने इन्हें वैसा २ ही नाम दे दिया था, उन की औलादवाले लोग भी ऊपर कहे हुए उदाहरणों के अनुसार उन्हीं खापों के नाम से प्रसिद्ध हो गये, तात्पर्य यह है कि - ऊपर लिखे अनुसार अनेक कारणों से ओसवाल वंश में से अनेक शाखायें और प्रतिशाखायें निकलती गईं।
ओसवालों में बलाई और चण्डालिया आदि खांपों के नाम सुन कर बहुत से अक्ल के अन्धे कह बैठते हैं कि- जैनाचार्यों ने नीच जातिवालों को भी ओसवाल वंश में शामिल कर दिया है, सो यह केवल उन की मूर्खता है, क्योंकि ओसवाल वंश में सोलह आने में से पन्द्रह आने तो राजपूत ( क्षत्रियवंश ) हैं, बाकी महेश्वरी वैश्य और ब्राह्मण हैं अर्थात् प्रायः इन तीन ही जातियों के लोग ओसबाल बने हैं, इस बात को अभी तक लिखे हुए ओसवाल वंशोत्पत्ति के खुलासा हाल को पढ़ कर ही बुद्धिमान् अच्छे प्रकार से समझ सकते हैं ।
१- गुजरात देश में कुमारपाल राजा के समय में अर्थात् विक्रम संवत् वारह सौ में पूर्णतिलक गच्छीय जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि जी महाराज ने श्रीमालियों को प्रतिबोध दे कर जैनधर्मी श्रावक बनाया था जो कि गुजरात देश में वर्त्तमान में दशे श्रीमाली और वीसे श्रीमाली, इन दो नामों से पुकारे जाते हैं तथा जैनी श्रावक कहलाते हैं, इन के सिवाय उक्त देश में छीपे
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