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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
की जगह में उसे ओषधि लगानी पड़ती है, यद्यपि यह तो निश्चय ही है कि इन जीवों ने उस श्रावक का कुछ भी अपराध नहीं किया है, क्योंकि वे बेचारे तो अपने कर्मों के वश इस योनि में उत्पन्न हुए हैं, कुछ श्रावक का बुरा करने वा उसे हानि पहुँचाने की भावना से उत्पन्न नहीं हुए हैं, परन्तु श्रावक को उन्हें मारना पड़ता है, तात्पर्य यह है कि इन की हिंसा भी श्रावक से त्यागी नहीं जा सकती है, इस लिये ढाई विश्वों में से आधी दया फिर चली गई, अब केवल सवा विश्वा दया शेष रही, बस इस सवा विश्वा दया को भी शुद्ध श्रावक ही पाल सकता है अर्थात् संकल्प से निरपराधी त्रस जीवों को विना कारण न मारूँ इस प्रतिज्ञा का यथाशक्ति पालन कर सकता है, हां यह श्रावक का अवश्य कर्त्तव्य है कि वह जान बूझ कर ध्वंसता को न करे, मन में सदा इस भावना को रक्खे कि मुझ से किसी जीव की हिंसा न हो जावे, तात्पर्य यह है कि इस क्रम से स्थूल प्राणातिपात व्रत का श्रावक को पालन करना चाहिये, हे नरेन्द्र ! यह व्रत मूलरूप है तथा इस के अनेक भेद और भेदान्तर हैं जो कि अन्य ग्रन्थों से जाने जा सकते हैं, इस के सिवाय बाकी के जितने व्रत हैं वे सब इसी व्रत के पुष्प फल पत्र और शाखारूप हैं" इत्यादि ।
इस प्रकार श्रीरतप्रभ सूरि महाराज के मुख से अमृत के समान उपदेश को सुन कर राजा उपलदे पँवार को प्रतिबोध हुआ और वह अपने पूर्व ग्रहण किये हुए महामिथ्यात्वरूप तथा नरकपात के हेतुभूत देव्युपासकत्वरूपी स्वमत को छोड़ कर सत्य तथा दया से युक्त धर्म पर आ ठहरा और हाथ जोड़ कर श्री आचार्य महाराज से कहने लगा कि - 'हे परमगुरो ! इस में कोई सन्देह नहीं है कि - यह दयामूल धर्म इस भव और परभव दोनों में कल्याणकारी है परन्तु क्या किया जावे ? मैं ने अबतक अपनी अज्ञानता के उदय से व्यभिचारप्रधान असत्य मत का ग्रहण कर रक्खा था परन्तु हाँ अब मुझे उस की निःसारता तथा दयामूल धर्म की उत्तमता अच्छे प्रकार से मालूम हो गई है, अब मेरी आप से यह प्रार्थना है कि- इस नगर में उस मत के जो अध्यक्ष लोग हैं उन के साथ आप शास्त्रार्थ करें, यह तो मुझे निश्चय ही है कि शास्त्रार्थ में आप जीतेंगे क्योंकि सत्य धर्म के आगे असत्य मत कैसे ठहर सकता है ? बस इस का परिणाम यह होगा कि मेरे कुटुम्बी और सगे सम्बंधी आदि सब लोग प्रेम के साथ इस दयामूल धर्म का ग्रहण करेंगे" राजा के इस वचन को सुन कर श्रीरतप्रभ सूरि महाराज बोले कि - " निस्सन्देह ( वेशक ) वे लोग आवें हम उन के साथ शास्त्रार्थ करेंगे, क्योंकि हे नरेन्द्र ! संसार में ऐसा कोई मत नहीं है जो कि दयामूल अर्थात् अहिंसाप्रधान इस जिनधर्म को शास्त्रार्थ के द्वारा हटा सके, उस में भी भला व्यभिचारप्रधान यह कुण्डापन्थी मत तो कोई चीज ही नहीं है, यह मत तो अहिंसाप्रधान धर्मरूपी सूर्य के सामने खद्योतवत् ( जुगुनू के समान ) है, फिर भला यह मत उस धर्म के आगे कब ठहर सकता है अर्थात् कभी नहीं ठहर सकता है, निस्सन्देह
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