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________________ पञ्चम अध्याय। ६०१ शस्त्र को न भी चलावे परन्तु जब शत्रु उस पर शस्त्र को चलावे अथवा उसे मारने को आवे उस समय उस श्रावक को भी शत्रु को भी मारना ही पड़ता है, इसी प्रकार जब कोई सिंहादि हिंस्र (हिंसक) जन्तु श्रावक को मारने को आवे तब उस को भी मारना ही पड़ता है, ऐसी दशा में संकल्प से भी हिंसा का त्याग नहीं हो सकता है, इस लिये उस शेष पाँच विश्वा दया में से भी आधी जाती रही, अब केवल ढाई विश्वा ही दया रह गई अर्थात् केवल यह नियम रहा कि-जो निरपराधी त्रस मात्र जीव दृष्टिगोचर हो उसे न मारूँ, अब इस में भी दो भेद होते हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष, इन में से भी सापेक्ष निरपराधी जीव की दया श्रावक से नहीं पाली जा सकती है, क्योंकि जब श्रावक घोड़े, बैल, रथ और गाड़ी आदि सवारी पर चड़ता है तब उस घोड़े आदि को हाँकते समय उस के चाबुक आदि मारना पड़ता है, यद्यपि उन घोड़े और बैल आदिकों ने उस का कुछ अपराध नहीं किया है क्योंकि वे बेचारे तो उस को पीठ पर चढ़ाये हुए ले जा रहे हैं और वह प्रथम तो उन की पीठ पर चढ़ रहा है दूसरे यह नहीं समझता है कि इस बेचारे जीव की चलने की शक्ति है वा नहीं है, जब वे जीव धीरे २ चलते हैं वा नहीं चलते हैं तब वह अज्ञान के उदय से उन को गालियाँ देता है तथा मारता भी है, तात्पर्य यह है कि-इस दशा में यह निरपराधी जीवों को भी दुःख देता है, इसी प्रकार अपने शरीर में अथवा अपने पुत्र पुत्री नाती तथा गोत्र आदि के मस्तक वा कर्ण (कान) आदि अवयवों में अथवा अपने मुख के दाँतों में जब कीड़े पड़ जाते हैं तब उन के दूर करने के लिये उन (कीड़ों) पराक्रम दिखलाया, अन्त में एक तीर के छाती में लगने से अपनी मृत्यु को समीप जान कर सन्थारा किया (यह वर्णन ऊपर कहे हुए दोनों सूत्रों में मौजूद है), देखो! उक्त जैन क्षत्रिय ने अपना सांसारिक कर्त्तव्य भी पूरा किया और धार्मिक कर्त्तव्य को भी पूरा किया, उस के विषय में पुनः सूत्रकार साक्षी देता है कि वह उक्त व्यवहार से देवलोक को गया, इस के सिवाय उक्त सूत्रों में यह भी वर्णन है कि श्री महावीर स्वामी के भक्त और बारहव्रतधारी श्रावक चेडा राजा ने कूणिक राजा के साथ बारह युद्ध किये और उन में से एक ही युद्ध में १,८०,००,००० (एक करोड़ अरसी लाख) मनुष्य मरे, इसी प्रकार बहुत से प्रमाण इस विषय में बतलाये जा सकते हैं, तात्पर्य यह है कि स्वदेशरक्षा के लिये युद्ध करने में जैन शास्त्र में कोई निषेध नहीं है, विचार करने से यह बात अच्छे प्रकार मालूम हो सकती है कि-स्वदेशरक्षा के लिये लड़ता हुआ व्रतधारी श्रावक हिंसा करने के हेतु से नहीं लड़ता है किन्तु हिंसको को दूर रखने के लिये लड़ता है तथा अपराधी को शिक्षा देने ( दण्ड देने) के लिये लड़ता है, इस लिये श्रावक का पहिला (प्राणातिपात) व्रत उस को इस विषय में नहीं रोक सकता है (देखो बारह व्रतों में से पहिले व्रत के आगार), पाठकगण ! हमारे इस कथन से यह न समझ लीजिये कि श्रावक को युद्ध में जाने में कोई दोष नहीं है किन्तु हमारे कथन का प्रयोजन यह है कि कारण विशेष से तथा धर्म के अनुकूल युद्ध में जाने से श्रावक के पहिले व्रत का भंग नहीं होता है, इस विषय में जैनागम की ही अनेक साक्षियां हैं, जिस का कुछ वर्णन ऊपर कर ही चुके हैं, ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से यहां पर इस विषय में विशेष नहीं लिखना चाहते हैं, क्योंकि विचारशील पाठकों के लिये प्रमाणसहित थोड़ा ही लिखना पर्याप्त (काफी) और उपयोगी होता है। ५१ जै० सं० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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