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चतुर्थ अध्याय ।
५९१ को कुछ मिनटों तक बन्द कर देना चाहिये, त्वचा (चमड़ी) में पिचकारी लगानी चाहिये तथा राई लगानी चाहिये और रोगी को पानी पिलाना चाहिये।
इस रोग के होने का जो कोई कारण विदित (मालूम ) हो उस का शीघ्र ही योग्य उपाय करना चाहिये अर्थात् उस कारण की निवृत्ति करनी चाहिये, मन को वश में रखना चाहिये तथा रोगी को हिम्मत और उत्साह दिलाना चाहिये, उस के मन को काम काज में लगाये रखना चाहिये ।
किन्हीं २ का यह रोग विवाह करने से अथवा बच्चे के जन्मने से जाता रहता है, उस को कारण यही है कि-काम काज में प्रवृत्ति और मन की वृत्ति के बदलने से ऐसा होता है। ___ इन के सिवाय-इस रोग में प्रायः चे इलाज उपयोसी. होते हैं कि जिन से रोगी का शरीर सुधरे और उस को शक्ति प्राप्त हो तथा शारीरिक (शरीर का) और मानसिक (मन का) व्यायाम भी इस रोग में अधिक लाभदायक (फायदेमन्द) माने गये हैं। यह चतुर्थ अध्याय का प्रकीर्ण रोगवर्णन नामक पन्द्रहवां प्रकरण समाप्त हुआ। इति श्री जैन श्वेताम्बर धर्मोपदेशक, यति प्राणाचार्य, विवेकलब्धिशिष्य, शीलसौभाग्य-निर्मितः, जैनसम्प्रदायशिक्षायाः,
चतुर्थोऽध्यायः
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