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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
बैठते, और सोतेसमय में, वर्तन आदि के उठाने और रखने के समय में, खाने और पीने के समय में, रसोई आदि में, लकड़ी, थेपड़ी, आदि ईंधन में, तथा तेल, छाछ, घी, दूध, पानी आदि में यथाशक्य ( जहां तक हो सके ) जीवों की रक्षा करे – किन्तु प्रमादपूर्वक ( लापरवाही के साथ ) किसी काम को न करे, दिन में दो वक्त जल को छाने तथा छानने के कपड़े में जो जीव निकलें यदि वे जीवं कुएं के हों तो उन को कुएं में ही गिरवा दे तथा बरसाती पानी के हों तो उन को बरसात के पानी में ही गिरवा दे, मुख्यतया व्यापार करनेवाले ( हिलने चलनेवाले ) जीव तीन प्रकार के होते हैं— जलचर, स्थलचर, और खचर, इन में से पानी में उत्पन्न होनेवाले और चलनेवालों को जलचर कहते हैं, पृथिवी पर अनेक रीति से उत्पन्न होने वाले और फिरने वाले चींटी से लेकर मनुष्य पर्यन्त जीवों को स्थलचर कहते हैं तथा आकाश में उड़नेवाले जीवों को खचर ( आकाशचारी ) कहते हैं, इन सब जीवों को कदापि सताना नहीं चाहिये, यही दया का स्वरूप है, इस प्रकार की दया का जिस धर्म में पूर्णतया उपदेश किया गया है तथा तप और शील आदि पूर्व कहे हुए गुणों का वर्णन किया गया हो उसी धर्म को बुद्धिमान् पुरुष को स्वीकार करना चाहिये - क्योंकि वही धर्म संसार से तोरने वाला हो सकता है क्योंकि -- दान, शील, तप और दया से युक्त होने के कारण वही धर्म है - दूसरा धर्म नहीं है ॥ ९१ ॥
राजा के सब भृत्य को, गुण लक्षण निरधार ॥
जिन से शुभ यश ऊपजै, राजसम्पदा भार ॥ ९२ ॥
अब राजा के सब नौकर आदि के गुण और लक्षणों को कहते हैं— जिस से यश की प्राप्ति हो, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि हो तथा प्रजा सुखी हो ॥ ९२ ॥ आर्य वेद व्याकरण अरु, जप अरु होम सुनिष्ट || ततपर आशीर्वाद नित, राजपुरोहित इष्ट ।। ९३ ।।
चार आर्य वेद, चार लौकिक वेद, चार उपवेद और व्याकरणादि छः शास्त्र, इन चौदह विद्याओं का जाननेवाला, जप, पूजा और हवन का करनेवाला तथा आशीर्वाद का बोलनेवाला, ऐसा राजा का पुरोहित होना चाहिये ॥ ९३ ॥ सोरठा - भलो न कबहुँ कुराज, मित्र कुमित्र भलो न गिन ॥
असती नारि अकाज, शिष्य कुशिष्य हु कब भलो ॥९४॥
१ - क्योंकि जो जीव जिस स्थान के होते हैं वे उसी स्थान में पहुंचकर सुख पाते हैं । २-धर्म शब्द का अर्थ प्रथम अध्याय के विज्ञप्ति प्रकरण में कर चुके हैं कि दुर्गति से बचाकर यह शुभ स्थानमें धारण करता है इसलिये इसे धर्म कहते हैं |
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