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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
१५-व्रण (धाव) के कारण जिस के शोष उत्पन्न हुआ हो उस रोनी की चिकित्सा स्निग्ध (चिकने), अग्निदीपनकर्ता, स्वादिष्ठ (जायकेदार), शीतल, कुछ खटाईवाले तथा व्रणनाशक पदार्थों से करनी चाहिये।
१६-महाचन्दनादि तैल-तिली का तैल चार सेर, क्वाथ के लिये लाल चन्दन, शालपर्णी, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, गोखुरू, मुद्गपर्णी, विदारीकन्द, असगन्ध, माषपर्णी, आँवले, सिरस की छाल, पद्माख, खस, सरलकाष्ठ, नागकेशर, प्रसारणी, मूर्वा, फूलप्रियंगु, कमलगट्ठा, नेत्रवाला, खिरेटी, कंगही, कमल की नाल और भसीड़े, ये सब मिलाके ५० टके भर लेवे तथा खिरेटी ५० टके भर लेवे, पाक के वास्ते जल १६ सेर लेवे, जब जल चार सेर बाकी रहे तब बकरी का दूध, सतावर का रस, लाख का रस, कांजी और दही का जल, प्रत्येक चार २ शेर ले तथा प्रत्येक के पाक के लिये जल १६ सेर लेवे, जब चार सेर रह जावे तब उसे छान ले, फिर पृथक् २ क्वाथ और कल्क के लिये-सफेद चन्दन, अगर, कंकोल, नख, छारछवीला, नागकेशर, तेजपात, दालचीनी, कमल. गहा, हलदी, दारुहलदी, सारिवा, काली सारिवा, लाल कमल, छड़, कूठ, त्रिफला, फालसे, मूर्वा, गठिवन, नलिका, देवदारु, सरलकाष्ठ, पाख, खस, धाय के फूल, बेलगिरि, रसोत, मोथा, सिलारस, सुगन्धवाला, बच, मजीठ, लोध, सोंफ, जीवन्ती, प्रियंगु, कचूर, इलायची, केसर, खटासी, कमल की केशर, राना, जावित्री, सोंठ और धनिया, ये सब प्रत्येक दो २ तोले लेवे, इस तेल का पाक करे, पाक हो जाने के पश्चात् इस में केशर, कस्तूरी और कपूर थोड़े २ मिलाकर उत्तम पात्र में भर के इस तेल को रख छोड़े, इस तेल का मर्दन करने से वात. पित्तजन्य सब रोग दूर होते हैं, धातुओं की वृद्धि होती है, घोर राजयक्ष्मा; रक्तपित्त और उरःक्षत रोग का नाश होता है तथा सब प्रकार के क्षीण पुरुषों की क्षीणता को यह तेल शीघ्र ही दूर करता है।
१७-यदि रोगी के उरःक्षत ( हृदय में घाव) हो गया हो तो उसे खिरेटी, असगन्ध, अरनी, सतावर और पुनर्नवा, इन का चूर्ण कर दूध के साथ नित्य पिलाना चाहिये।
१८-अथवा-छोटी इलायची, पत्रज और दालचीनी, प्रत्येक छः २ मासे, पीपल दो तोले, मिश्री, मौलेठी, छुहारे और दाख, प्रत्येक चार २ तोले, इन सब का चूर्ण कर शहद के साथ दो २ तोले की गोलियां बनाकर नित्य एक गोली का सेवन करना चाहिये, इस से उरःक्षत, ज्वर, खांसी, श्वास, हिचकी, वमन, भ्रम, मूर्छा, मद, प्यास, शोष, पसवाड़े का शूल, अरुचि, तिल्ली, आढ्यवात, रक्तपित्त और स्वरभेद, ये सब रोग दूर हो जाते हैं तथा यह एलादि गुटिका वृष्य और इन्द्रियों को तृप्त करने वाली है ॥
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