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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
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सुजाख ) कहते हैं, इस पुराने सुजाख का मिटना बहुत कठिन ( मुश्किल ) हो जाता है अर्थात् दो चार मास तक इस के छिद्र ( छेद ) बंद रहते हैं, लेकिन जब कुछ गर्म पदार्थ खाने में भा जाता है तब ही वह फिर मालूम पड़ने लगता है अर्थात् पुनः सुजाख हो जाता है, सुजाख के पुराने हो जाने से शीघ्र ही उस में से मूत्रकृच्छ्र अर्थात् मूत्रगांठ उत्पन्न हो जाती है और वह इतना कष्ट देती है कि रोगी और वैद्य उस के कारण हैरान हो जाते हैं तथा यह निश्चित ( निश्चय की हुई ) बात है कि पुराने सुजाख से प्रायः मूत्रकृच्छ्र हो ही जाता है ।
कभी २ सुजाख के साथ वद भी हो जाती है तथा कभी २ सुजाख के कारण इन्द्रिय के ऊपर मस्सा भी हो जाता है, इन्द्रिय का फूल सूज जाता है और उस के बाहर चाँदे चकत्ते ) पड़ जाते हैं, मूत्राशय अथवा वृषण का बरम ( शोध ) हो जाता है और कभी २ पेशाब भी रुक जाता है ।
यद्यपि सुजा शरीर के केवल इन्द्रिय भाग का रोग है तथापि तमाम शरीर में उस के दूसरे भी चिह्न उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे- शरीर के किसी भाग का फूट निकलना, सन्धियों में दर्द होना, पृष्ठवंश ( पीठ के बांस ) में वायु का भरना तथा आँखों में दर्द होना इत्यादि, तात्पर्य यह है कि-सुजाख के कारण शरीर के विभिन्न भागों में भी अनेक रोग प्रायः हो जाते हैं ।
चिकित्सा - १ - सुजाख का प्रारंभ होने पर यदि उस में शोथ ( सूजन ) अधिक हो तथा असह्य ( न सहने योग्य) वेदना ( पीड़ा ) होती हो तो वेसणी के ऊपर थोड़ी सी जोंकें लगवा देनी चाहियें, परन्तु यदि अधिक शोथ और विशेष वेदना न हो तो केवल गर्म पानी का सेक करना चाहिये ।
२ - इन्द्रिय को गर्म पानी में भिगोये हुए कपड़े से लपेट लेना चाहिये ।
३- रोगी को कमर तक कुछ गर्म ( सहन हो सके ऐसे गर्म ) पानी में दश से लेकर वीस मिनट तक बैठाये रखना चाहिये तथा यदि आवश्यक हो तो दिन में कई वार भी इस कार्य को करना चाहिये ।
४ - पेशाब तथा दस्त को लानेवाली औषधियों का सेवन करना चाहिये ।
५- इस रोग में पेशाब के अम्ल होने के कारण जलन होती है इस लिये आलकली तथा सोडा पोटास आदि क्षार ( खार ) देना चाहिये ।
६ - इस में पानी अधिक पीना चाहिये तथा एक भाग दूध और एक भाग पानी मिला कर धीरे २ पीते रहना चाहिये ।
७- अलसी की चाय बनवा कर पीनी चाहिये तथा जौ का पानी उकाल ( उबाल ) कर पीना चाहिये, परन्तु आवश्यकता हो तो उस पानी में थोड़ासा सोडा भी मिला लेना चाहिये ।
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