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चतुर्थ अध्याय ।
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इस रोग में जैसी टांकी प्रथम होती है उसी के परिमाण के अनुसार शरीर की गर्मी प्रकट होती है, इस लिये जिस रोगी के पहिले ही टांकी मोठी, बहुत कठिन तथा प्रसर युक्त (फैलती हुई) मालूम होती है उस रोगी के पीछे से गर्मी के चिह्न भी वेग के साथ में उठते हैं । (प्रश्न) जिस आदमी को एक वार उपदंश का रोग हो जाता है वह रोग पीछे समूल (मूल के साथ ) जाता है अथवा नहीं जाता है ? (उत्तर) निस्सन्देह यह एक महत्व (दीर्घदर्शिता) का प्रश्न है, इस का उत्तर केवळ यही है कि यदि मूल (मुख्य) टांकी साधारण वर्ग की हुई हो तथा उस का उपाय अच्छे प्रकार से और शीघ्र ही किया जावे तथा आदमी भी दृढ़शरीर का हो तो इस रोग के समूल नष्ट हो जाने का सम्भव होता है, परन्तु बहुत से लोगों का तो यह रोग अन्तसमय तक भी पीछा नहीं छोड़ता है, इस का कारण केवल-रोग का कठिन होना, शीघ्र और योग्य उपाय का न होना तथा शरीर की दुर्बलता ही समझना चाहिये, यद्यपि औषध, उपाय तथा परहेज़ से रहने से यह रोग कम हो जाता है तथा कुछ कालतक दीख भी नहीं पड़ता है, तथापि जिस प्रकार बिल्ली चूहे की ताक (घात) लगाये हुए बैठी रहती है उसी प्रकार एक वार हो जाने के पीछे यह रोग भी आदमी के शरीरपर घात लगाये ही रहता है अर्थात् इस का कोई न कोई लक्षण अनेक समयों में दिखाई दिया करता है, और जब किसी कारण से शरीर में निर्बलता बढ़ जाती है त्यों ही यह रोग अपना जोर दिखलता है । (प्रश्न) आप पहिले यह कह चुके हैं कि यह रोग चेप से होता है तथा बारसा में जाता हैं, परन्तु इस में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस रोगवाले आदमी को स्त्रीसंग करना चाहिये वा नहीं करना चाहिये ? ( उत्तर ) जबतक टांकी हो तबतक तो कदापि स्त्रीसंग नहीं करना चाहिये, किन्तु जब यह रोग योग्य उपचारों ( उपायों) के द्वारा शान्त हो जावे तब ( रोग की शान्ति के पीछे ) स्त्रीसंग करने में हानि नहीं है, इस के सिवाय इस बात का भी स्मरण रखना चाहिये कि-बहुधा ऐसा भी होता है कि स्त्री अथवा पुरुप को जब यह रोग होता है और उन के संयोग से गर्भ रहता है तब
१-क्योंकि बहुतों के मुख से यह सुना है कि यह रोग मूलसहित कभी नहीं जाता है परन्तु बहुत से मनुष्यों को रोग हो चुकने के बाद भी विलकुल निरोग के समान देखा है अतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है, क्योंकि इस विषय में सन्देह हैं ॥ २-चयोंकि यदि वह पुरुष कारणविशेष के विना ऋतुकाल में भी स्वस्त्रीसंग न करे तो उसे दोष लगता है (देखो मनु आदि ग्रन्थों को)
और यदि स्त्रीसंग करे तो चेप के द्वारा स्त्री के भी इस रोग के हो जाने की सम्भावना है, क्यों कि आप भी प्रथम कह चुके हैं, कि-यह रोग समूल तो किसी ही का जाता है ॥ ३-तात्पर्य यह है कि रोगदशा में स्त्रीसंग कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से दोनों को ही हानि पहुँचती है किन्तु जब योग्य चिकित्सा आदि उपायों से रोग बिलकुल शान्त हो जावे अर्थात दी आदि कछ भी विकार न रहे उस समय स्त्रीसंग करना चाहिये, ऐसी दशा में स्त्री के इस रोग के संक्रमण की सम्भावना प्रायः नहीं रहती है, क्योंकि रसी निकलने आदि की दशा में उस का चेप लगने से इस रोग की उत्पत्ति का पूरा निश्चय होता है अन्यथा नहीं ।।
४५ जै० सं०
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