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चतुर्थ अध्याय ।
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पथ्य- - इस रोग में-वमन (उलटी ) का लेना, लंघन करना, नींद लेना, पुराने चावल, मसूर, तूर ( भरहर ), शहद, तिल, बकरी तथा गाय का दूध, दही, छाछ, गाय का घी, बेल का ताज़ा फल, जामुन, कबीठ, अनार, सब तुरे पदार्थ तथा हलका भोजन इत्यादि पथ्य हैं' ।
कुपथ्य - इस रोग में-खान, मर्दन, करड़ा तथा चिकना अन्न, कसरत, सेक, नया अन्न, गर्म वस्तु, स्त्रीसंग, चिन्ता, जागरण करना, बीड़ी का पीना, गेहूँ, उड़द, कच्चे आम, पूरनपोली, कोला, ईख, मद्य, गुड़, खराब जल, कस्तूरी, पत्तों के सब शाक, ककड़ी तथा खट्टे पदार्थ, ये सब कुपथ्य हैं अर्थात् ये सब पदार्थ इस रोग में हानि करते हैं ।
यह भी स्मरण रखना चाहिये कि इस रोग में चाहे ओषधि कुछ देरी से ली जावे तो कोई हानि नहीं है, परन्तु पथ्य खान पान करने में बिलकुल ही गलती ( भूल ) नहीं करनी चाहिये ।
मरोड़ा, आमातीसार, संग्रहणी (डिसेण्टरी) का वर्णन ।
मरोड़ा, आमातीसार और संग्रहणी, ये तीनों नाम लगभग एक ही रोग के हैं, क्योंकि इन सब रोगों में प्रायः समान ही लक्षण पाये जाते हैं, वैद्यकशास्त्र में जिस को आमातीसार नाम से कहा गया है उसी को लोग मरोड़ा कहते हैं, aarart और आमातीसार जब पुराने हो जाते हैं तब उन्हीं को संग्रहणी कहते हैं, इस लिये यहां पर तीनों को साथ में ही दिखलाते हैं, क्योंकि - अवस्था ( स्थिति वा हालत ) के भेद से यह प्रायः एक ही रोग है ।
यह रोग प्रायः सब ही वर्ग के लोगों को होता है, जिस प्रकार एक विशेष प्रकार की विषैली हवा से विशेष जाति के रोग फूट कर निकलते हैं उसी प्रकार मरोड़े रोग का भी कारण एक विशेष प्रकार की विषैली हवा और विशेष ऋतु होती है, क्योंकि-मरोड़े का रोग सामान्यतया ( साधारण रीति से ) तो किसी २
१ - जब अतीसार रोगचला जाता है तब मल के निकले विना मूत्र का साफ उतरना अधोवायु ( अपानवायु ) की ठिक प्रवृत्ति का होना, अग्नि का प्रदीप्त होना, कोष्ठ ( कोठे ) का हलका मालूम पड़ना शुद्ध डकार का आना, अन्न और जल का अच्छा लगना, हृदय में उत्साह होना तथा इन्द्रियों का स्वस्थ होना, इत्यादि लक्षण होते हैं ॥ २-यह बात केवल इसी रोग में नहीं किन्तु सब ही रोगों में ध्यान रखनेयोग्य है, क्योंकी - पहिले ही लिख चुके हैं कि-पथ्य न रखने से ओषधि से भी कुछ लाभ नहीं होता है तथा पथ्य रखने से ओषधि के लेने की भी विशेष आवश्यकता नहीं रहती है, परन्तु हां इतनी बात अवश्य है कि कई रोगों में कुपथ्य बहुत विलम्ब से तथा थोड़ी ही हानि करता हैं, परन्तु अतीसार आदि रोगों में कुपथ्य शीघ्र ही तथा बड़ी भारी हानि करता है, इस लिये इन ( अतीसार आदि रोगों) में ओषधि की अपेक्षा पथ्यपर अधिक ध्यान देना चाहिये || ३- तात्पर्य यह है कि स्थिति ( हालत ) के भेद से अतीसार रोग के ही ये तीनों नाम पृथक २ रक्खे गये हैं अतएव इम ने यहांपर इन तीनों को साथ में ही लिखा है, अब जो इन में स्थिति का भेद है उस का वर्णन यथायोग्य आगे किया ही जावेगा ।। ४३ जै० सं०
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