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जैनसम्प्रदायशिक्षा। यह निश्चय नहीं होता है कि यह ज्वर शीतला का है अथवा सादा (साधारण) है परन्तु अनुभव तथा त्वचा (चमड़ी) का विशेष रंग शीघ्र ही इस का निश्चय करा देता है।
जब शीतला के दाने बाहर दिखलाई देने लगते हैं तब ज्वर नरम (मन्द) पड़ जाता है परन्तु जब दाने पक कर भराव खाते हैं (भरने लगते हैं) तब फिर भी ज्वर वेग को धारण करता है, अनुमान दशवें दिन दाना फूट जाता है
और खरूंट जमना शुरू हो जाता है, प्रायः चौदहवें दिन वह कुछ परिपक्व हो जाता है अर्थात् दानों के लाल चट्टे हो जाते हैं, पीछे कुछ समय बीतने पर वे भी अदृश्य हो जाते हैं (दिखलाई नहीं देते हैं) परन्तु जब शीतला का शरीर में अधिक प्रकोप और वेग हो जाता है तब उस के दाने भीतर की परिपक्व (पकी हुई ) चमड़ी में घुस जाते हैं तथा उन दानों के चिह्न मिटते नहीं हैं अर्थात् खड्डे रह जाते हैं, इस के सिवाय-इस के कठिन उपद्रव में यदि यथोचित चिकित्सा न होवे तो रोगी की आँख और कान इन्द्रिय भी जाती रहती है।
चिकित्सा-टीका का लगवा लेना, यह शीतला की सर्वोपरि चिकित्सा है अर्थात् इस के समान वर्तमान में इस की दूसरी चिकित्सा संसार में नहीं है, सत्य तो यह है कि-टीका लगाने की युक्ति को निकालनेवाले इंग्लेंड देश के प्रसिद्ध डाक्टर जेनर साहब के तथा इस देश में उस का प्रचार करनेवाली श्रीमती ब्रिटिश गवर्नमेंट के इस परम उपकार से एतद्देशीय जन तथा उन के बालक सदा के लिये आभारी हैं अर्थात् उन के इस परम उपकार का बदला नहीं दिया जा सकता है, इस बात को प्रायः सब ही जानते हैं कि जब से उक्त डाक्टर साहब ने खोज करके पीप (रेसा) निकाला है तब से लाखों बच्चे इस भयंकर रोग की पीड़ा से मुक्ति पाने और मृत्यु से बचने लगे हैं, इस उपकार की जितनी प्रशंसा की जावे वह थोड़ी है।। - इस से पूर्व इस देश में प्रायः इस रोग के होने पर अविद्यादेवी के उपासकों ने केवल इस की यही चिकित्सा जारी कर रक्खी थी कि-शीतलादेवी की पूजा करते थे जो कि अभी तक शीतलासप्तमी (शील सातम ) के नाम से जारी है।
इस (शीतला रोग) के विषय में इस पवित्र आर्यावर्त के लोगों में और विशेष कर स्त्री जाति में ऐसा भ्रम (बहम ) घुस गया है कि यह रोग किसी
१-क्योंकि संसार में जीवदान के समान कोई दान नहीं है, अत एव इस से बढ़ कर कोई भी परम उपकार नहीं है ।। २-अर्थात् पूर्व समय में ( टीका लगाने की रीति के प्रचरित होने के पूर्व ) इस रोग की कोई चिकित्सा नहीं करते थे, सिर्फ शीतला देवी का पूजन और आराधन करते थे तथा उसी का आश्रय लेकर वैठे रहते थे कि शीतला माता अच्छा कर देगी, उस का परिणाम तो जो कुछ होता था वह सब ही को विदित है, अतः उस के लिखने की विशेप आवश्यकता नहीं है।
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