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चतुर्थ अध्याय ।
४७७ शील, शीतला वा माता (स्मॉलपॉक्स) का वर्णन ।
भेद (प्रकार)-शीतला दो प्रकार की होती है-उन में से एक प्रकार की शीतला में तो दाने थोड़े और दूर २ निकलते हैं तथा दूसरे प्रकार की शीतला में दाने बहुत होते हैं तथा समीप २ (पास २)होते हैं अर्थात् दूसरे प्रकार की शीतला सब शरीर पर फूट कर निकलती है, इस में दाने इस प्रकार आपस में मिल जाते हैं कि-तिल भर भी (जरा भी) जगह खाली नहीं रहती है, यह दूसरे प्रकार की शीतला बहुत कष्टदायक और भयङ्कर होती है।
लक्षण-शरीर में शीतला के विष का प्रवेश होने के पीछे बारह वा चौदह दिन में शीतला का ज्वर साधारण ज्वर के समान आता है अर्थात् साधारण ज्वर के समान इस ज्वर में भी ठंढ का लगना, गर्मी, शिर में दर्द तथा वमन (उलटी) का होना आदि लक्षण दीख पड़ते हैं, हां इस में इतनी विशेषता होती है किइस ज्वर में गले में शोथ (सूजन), थूक की अधिकता (ज्यादती), आंखों के पलकों पर शोथ का होना और श्वास में दुर्गन्धि (बदबू) का आना आदि लक्षण भी देखे जाते हैं। __ कभी २ यह भी होता है कि किशोर अवस्थावाले बालकों को शीतला के ज्वर के प्रारम्भ होते ही तन्द्रा (मीट वा ऊँच) आती है और छोटे बच्चों के खेंचातान (श्वास में रुकावट) तथा हिचकियां होती हैं।
ज्वर चढ़ने के पीछे तीसरे दिन पहिले मुह तथा गर्दन में दाने निकलते हैं, पीछे-शिर, कपाल (मस्तक ) और छाती में निकलते हैं, इस प्रकार क्रम से नीचे को जाकर आखिरकार पैरों पर दिखलाई देते हैं, यद्यपि दानों के दीखने के पहिले
__ डाक्टर टामसन साहब लिखते हैं कि हम ने स्काटलैंड में सन् १८१८ ई० से दिसम्बर सन् १८१९ तक ५०६ शीतला के रोगियों की दवा की, जिन में से २५० ने टीका नही लगवाया था उन में से ५० मरे, इकहत्तर को जिन्हों ने टीका लगवाया था फिर शीतला निकली और इन में से केवल तीन ही मरे, लगभग ३०० मनुष्यों में से जिन्हों ने दूसरी बार टीका लगवाया था एक ही मरा, सन् १८२८ ई० में फ्रांस के मारसेल्स नगर में महामारी फैली, उस समय उस नगर में ४०,००० ( चालीस हज़ार ) मनुष्य बसते थे, जिन में से ३०,००० ( तीस हजार ) के टीका लगा हुआ था २,००० (दो हज़ार) के अच्छी तरह से टीका नहीं लगा था और ८,००० (आठ हजार ) ने टीका नहीं लगवाया था, तीस हज़ार टीका लगे हुए मनुष्यों में से दो हज़ार के शीतला निकली और उन में से केवल वीस मरे, इस लेख से पाठकगण टीका लगाने के लाभ को भले प्रकार से समझ गये होंगे, तात्पर्य यह है कि-सम्पूर्ण प्रमाणों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि टीका लगाना मनुष्य को शीतला से बचाता है और यदि उसे रोक नहीं देता तो उस की प्रबलता को अवश्य ही कम कर देता है, इतने पर भी भारतनिवासी जन मनुष्यजाति के कर रोग के निवारण के उपायरूप टीका लगाने की प्रथा को स्वीकार न करें तो इस से अधिक क्या शोक की बात हो सकती है ? बड़े खेद का विषय है कि-जिन उपायों से सदैव प्राणरक्षा की संभावना होती है और जिन को सप्रतिष्ठित डाक्टरों ने परीक्षा करके लाभकारी ठहराया है. मनुष्य अपनी मूर्खता के कारण उन उपायों का भी तिरस्कार करते हैं ।
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