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द्वितीय अध्याय ।
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उद्यमी ( मेहनती) पुरुष के लिये मेरु पहाड़ कुछ उंचा नहीं है और पाताल भी कुछ नीचा नहीं है, तथा समुद्र भी कुछ गहरा नहीं है, तात्पर्य यह है किउद्यम से सब काम सिद्ध हो सकते हैं ॥ ४२ ।।
एकहि अक्षर शिष्य कों, जो गुरु देत बताय ।।
धरती पर वह द्रव्य नाहँ, जिहिँ दै ऋण उतराय ॥ ४३ ॥ गुरः कृपा करके चाहें एक ही अक्षर शिष्य को सिखलावे, तो भी उस के उपकार का बदला उतारने के लिये कोई धन संसार में नहीं है, अर्थात् गुरु के उपकार के बदले में शिष्य किसी भी वस्तु को देकर उऋण नहीं हो सकता है ॥४३॥
पुस्तक पर आप हि पढ्यो, गुरु समीप नहिँ जाय ॥
सभा न शोभे जार सें, ज्यों तिय गर्भ धराय ॥४४॥ जिम पुरुष ने गुरु के पास जाकर विद्या का अभ्यास नहीं किया, किन्तु अपनी ही बुद्धि से पुस्तक पर आप ही अभ्यास किया है, वह पुरुष सभा में शोभा को नहीं पा सकता है, जैसे-जार पुरुष से उत्पन्न हुआ लड़का शोभा को नहीं पाता है, क्योंकि जार से गर्भ धारण की हुई स्त्री तथा उसका लड़का अपनी जातिवालों की सभा में शोभा नहीं पाते हैं, क्योंकि-लज्जा के कारण बाप का नाम नहीं बतला सकते हैं ॥ ४४ ॥
कुलहीन हु धनवन्त जो, धनसें वह सुकुलीन ॥
शशि समान हू उच्च कुल, निरधन सब से हीन ॥४५॥ नीच जातिवाला पुरुष भी यदि धनवान् हो तो धन के कारण वह कुलीन कहलाता है, और चन्द्रमा के समान निर्मल कुल अर्थात् ऊंचे कुलवाला भी पुरुष धन से रहित होने से सब से हीन गिना जाता है ॥४५॥
वय करि तप करि वृद्ध है, शास्त्रवृद्ध सुविचार ॥
वे सब ही धनवृद्ध के, किङ्कर ज्यों लखि द्वार ॥ ४६ ॥ इस संसार में कोई अवस्था में बड़े हैं, कोई तप में बड़े हैं और कोई बहुश्रुति अर्थात् अनेक शास्त्रों के ज्ञान से बड़े हैं, परन्तु इस रुपये की महिमा को देखो के-वे तीनों ही धनवान् के द्वार पर नौकर के समान खड़े रहते हैं ॥ ४६ ॥
वन में सुख से हरिण जिमि, तृण भोजन भल जान ।
देह हमें यह दीन वच, भाषण नहि मन आन ॥४७॥ जंगल में जाकर हिरण के समान सुखपूर्वक घास खाना अच्छा है, परंतु दीनता के साथ किसी सूम (कास) से यह कहना कि "हम को देओ" अच्छा नहीं है ॥ ४७ ॥
१--इस बात को वर्तमान में पाठकगण आंखों से देख ही रहे होंगे।
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