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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
विद्यावन्त सपूत बरु, पुत्र एक ही होत ॥
कुल भासत नर श्रेष्ठ से, ज्यों शशि निशा उदोत ॥ ३८ ॥
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चाहें एक भी लड़का विद्यावान् और सपूत हो तो वह कुल में उजाला कर देता है, जैसे अकेले चन्द्रमा से रात्रि में उजाला होता है, अर्थात् शोक और सन्ताप के करनेवाले बहुत से लड़कों के भी उत्पन्न होने से क्या है, किन्तु कुटुम्ब का पालनेवाला एक ही पुत्र उत्पन्न हो तो उसे अच्छा समझना चाहिये, देखो ! सिंहनी एक ही पुत्र के होने पर निडर होकर सोती है और गधी दश पुत्रों के होने पर भी बोझे ही को लादे हुए फिरती है ॥ ३८ ॥
शुभ तरुवर ज्यों एक ही, फूल्यो फल्यो सुवास ॥
सब वन आमोदित करे, त्यों सपूत गुणरास ॥ ३९ ॥
जिस प्रकार फूला फला तथा सुगन्धित एक ही वृक्ष सब वन को सुगन्धित कर देता है, इसी प्रकार गुणों से युक्त एक भी सपूत लड़का पैदा होकर कुल की शोभा को बढ़ा देता है ॥ ३९ ॥
निर्गुणि शत से हूँ अधिक, एक पुत्र गुणवान ॥
एक चन्द्र तम को हरै, तारा नहिँ शतमान ॥ ४० ॥
निर्गुणी लड़के यदि सौ भी हों तथापि वे किसी काम के नहीं हैं, किन्तु गुणवान् पुत्र यदि एक भी हो तो अच्छा है, जैसे-देखो ! एक चन्द्रमा उदित होकर अन्धकार को दूर कर देता है, किन्तु सैकड़ों तारों के होने पर भी अंधेरा नहीं मिटता है, तात्पर्य यह है कि गुणी पुत्र को चन्द्रमा के समान कुल में उद्योत करनेवाला जानो और निर्गुणी पुत्रों को तारों के समान समझो अर्थात् सौ भी निर्गुणी पुत्र अपने कुल में उद्योत नहीं कर सकते हैं ॥ ४० ॥
सुख चाहो विद्या तजो, विद्यार्थी सुख त्याग ||
सुख चाहे विद्या कहाँ, कहँ विद्या सुख राग ॥ ४१ ॥
यदि सुख भोगना चाहे तो विद्या को छोड़ देना चाहिये, और विद्या सीखना चाहे तो सुख को छोड़ देना चाहिये, क्योंकि सुख चाहनेवाले को विद्या नहीं मिलती है ॥ ४१ ॥
नहि नीचो पाताल तल, ऊँचो मेरु लिगार ॥
व्यापारी उद्यम करै, गहिरो दधि नहिँ धार ॥ ४२ ॥
१ - तात्पर्य यह है कि - विद्याभ्यास के समय में यहि मनुष्य भोग विलास में लगा रहेगा तो उस को विद्या की प्राप्ति कदापि नहीं होगी, इस लिये विद्यार्थी सुख को और सुखार्थी विद्या को छोड़ देने ॥
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