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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
इन सब बातों का विचार कर यही कहा जा सकता है कि-जो वैद्य सन्निपात की योग्य चिकित्सा कर मनुष्य को बचाता है उस पुण्यवान् वैद्य की प्रशंसा के लिखने में लेखनी सर्वथा असमर्थ है, यदि रोगी उस वैद्य को अपना तन मन
और धन अर्थात् सर्वस्व भी दे देवे तो भी वह उस वैद्य का यथोचित प्रत्युपकार नहीं कर सकता है अर्थात् बदला नहीं उतार सकता है किन्तु वह ( रोगी) उस वैद्य का सर्वदा ऋणी ही रहता है। __ यहां हम सन्निपातज्वर के प्रथम सामान्य लक्षण और उस के बाद उस के विषय में आवश्यक सूचना को ही लिखेंगे किन्तु सन्निपात के १३ भेदों को नहीं लिखेंगे, इस का कारण केवल यही है कि सामान्य बुद्धिवाले जन उक्त विषय को नहीं समझ सकते हैं और हमारा परिश्रम केवल गृहस्थ लोगों को इस विषय का ज्ञान कराने मात्र के लिये है किन्तु उन को वैद्य बनाने के लिये नहीं है, क्योंकि गृहस्थजन तो यदि इस के विषय में इतना भी जान लेंगे तो भी उन के लिये इतना ही ज्ञान (जितना हम लिखते हैं ) अत्यन्त हितकारी होगा।
लक्षण-जिस ज्वर में वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोप कोप को प्राप्त हुए होते हैं (कुपित हो जाते हैं ) वह सन्निपातज्वर कहलाता है, इस ज्वर में प्रायः ये चिह्न होते हैं कि-अकस्मात् क्षण भर में दाह होता है, क्षण भर में शीत लगता है, हाड़ सन्धि और मस्तक में शूल होता है, अश्रुपातयुक्त गदले और लाल तथा फटे से नेत्र हो जाते हैं, कानों में शब्द और पीड़ा होती है, कण्ठ में कांटे पड़ जाते हैं, तन्द्रा तथा बेहोशी होती है, रोगी अनर्थप्रलाप (व्यर्थ बकवाद) करता है, खांसी, श्वास, अरुचि और भ्रम होता है, जीभ परिदग्धवत् (जले हुए पदार्थ के समान अर्थात् काली) और गाय की जीभ के समान खर१-चौपाई-क्षण क्षण दाह शीत पुनि होई ॥ पीड़ा हाड़ सन्धि शिर सोई ॥१॥
गदले नैन नीर को स्रावै ।। रक्त कुटिल लोचन में आवै ॥२॥ कर्ण शूल भरणाटो जामें ॥ कण्ठ रोध पुनि होवै तामें ॥३॥ तन्द्रा मोह अरु भ्रम परलापा ॥ अरुचि श्वास पुनि कास सँतापा॥४॥ जिह्वा श्याम दग्ध सी दीसै ॥ तीक्ष्ण स्पर्श पुनि विश्वा वीसै ।। ५ ॥ अंग शिथिल अति होवें जासू ॥ नासा रुधिर स्रवें सो ताम् ॥ ६॥ कफ पित मिल्यो रुधिर मुख आवै ॥ रक्त पीत ज्यों वरण दिखावै॥७॥ तृष्णा शोष शीस को चालै ।। नीद न आवै काल अकालै ॥ ८ ॥ मल रु मूत्र चिर कालहु वरसै । अल्प स्वेद पुनि अंग में दरसे ॥ ९ ॥ कण्ठकूज कफ की अति बाधा ॥ कृशित अङ्ग वा को नहिं लाधा ॥ २०॥ श्याम रक्त मण्डल है ऐसा ॥ टांट्या खादा दाफड़ जैसा ॥ ११ ॥ भारी उदर सुने नहिं काना ॥ श्रोत्रपाक इत्यादिक नाना ।। १२ ।। बहुत काल में दोष जु पाचै । सन्निपातज्वर लक्षण सावे ।। १३ ॥
सन्निपातज्वर सहज सुरूपा ॥ ग्रन्थान्तर में वरण अनूगा ॥ १४ ॥ २-अश्रुमातयुक्त अर्थात् आँसुओं की धारा सहित ॥ ३-कफ के कारण गदले. पित्त के कारण तथा वात के कारण फटे से नेत्र होते हैं ।
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