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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
रुपये भर तथा बड़ी कण्टाली दो रुपये भर, इन सब औषधों को कूट कर इस में से एक रुपये भर औषध का काढ़ा पाव भर पानी में चढ़ा कर तथा डेढ़ छटांक पानी के बाकी रहने पर छान कर लेना चाहिये, क्योंकि इस क्वाथ से ज्वर पाचन at प्राप्त होकर ( परिपक्क होकर ) उतर जाता है ।
३-अथवा ज्वर आने के सातवें दिन दोष के पाचन के लिये गिलोय, सोंठ और पीपरामूल, इन तीनों औषधों के क्वाथ का सेवन ऊपर लिखे अनुसार करना चाहिये, इस से दोष का पाचन होकर ज्वर उतर जाता है ।
पित्तज्वर का वर्णन ।
कारण-पित्त को बढ़ानेवाले मिथ्या आहार और बिहार से विगड़ा हुआ पित्त आमाशय ( होजरी ) में जाकर उस ( आमाशय ) में स्थित रस को दूषित कर जठर की गर्मी को बाहर निकालता है तथा जठर में स्थित वायु को भी कुपित करता है, इस लिये कोप को प्राप्त हुआ वायु अपने स्वभाव के अनुकूल जटर की गर्मी को बाहर निकालता है उस से पित्तज्वर उत्पन्न होता है ।
लक्षण - आंखों में दाह जलन ) का होना, यह पित्तज्वर का मुख्य लक्षण है, इस के सिवाय ज्वर का तीक्ष्ण वेग, प्यास का अत्यंत लगना, निद्रा थोड़ी आना, अतीसार अर्थात् पित्त के वेग से दस्त का पतला होना, कण्ठ ओष्ट (ओठ ) मुख और नासिका (नाक) का पकना तथा पसीनों का आना, मूछी, दाह, चित्तभ्रम, मुख में कडु आपन, प्रलाप ( बड़बड़ाना ), वमन का होना, उन्मत्तपन, शीतल वस्तु पर इच्छा का होना, नेत्रों से जल का गिरना तथा विष्टा ( मल ) मूत्र और नेत्र का पीला होना, इत्यादि पित्तज्वर में दूसरे भी लक्षण होते हैं,
१ - यह भी स्मरण रखना चाहिये कि एक दोप कुपित होकर दूसरे दोष को भी कुपित वा विकृत ( विकार युक्त ) कर देता है । २ - वायु का यह स्वरूप वा स्वभाव है कि वायु दोष (कफ और पित्त ), धातु ( रस और रक्त आदि ) और मल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचानेवाला, आशुकारी ( जल्दी करनेवाला ), रजो गुणवाला, सूक्ष्म ( बहुत बारीक अर्थात् देखने में न आनेवाला ), रूक्ष (रूखा), शीतल (ठण्ढा ), हलका और चञ्चल (एक जगह पर न रहनेवाला) है, इस (वायु) के पांच भेद हैं-उदान, प्राण, समान, अपान और व्यान, इन में से कण्ठ में उदान, हृदय में प्राण, नाभि में समान, गुदा में अपान और सम्पूर्ण शरीर में व्यान बाबु रहता हैं, इन पांचों वायुओं के पृथक् २ कार्य आदि सब बातें दूसरे वैद्यक ग्रन्थों में देख लेनी चाहियें, यहां उन का वर्णन विस्तार के भय से तथा अनावश्यक समझ कर नहीं करते हैं ||
३- चौपाई - तीक्षण वेग जु तृपा अपारा ॥ निद्रा अल्प होय अतिसारा ॥ १ ॥
कण्ठ ओष्ठ मुख नासा पाके || मुर्छा दाह चित्त भ्रम ताके ॥ २ ॥ परसा तन कटु मुख वकवादा ॥ वमन करत अरु रह उन्मादा ॥ ३ ॥ शीतल वस्तु चाह तिस रहई ॥ नेत्रनतें जु प्रवाह जल बहई ॥ ४ ॥ नेत्र मूत्र पुनि मल हू पीता ॥ पित्त ज्वर के ये लक्षण मीता ॥ ५ ॥
४- इस ज्वर में पित्त के वेग से दस्त ही पतला होता है परन्तु इस पतले दस्त के होने से अतीसार रोग नहीं समझ लेना चाहिये ॥ ५-चित्तनम अर्थात् चित्त का स्थिर न रहना ॥
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