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चतुर्थ अध्याय ।
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लक्षण - जंभाई ( बगासी ) का आना, यह वातज्वर का मुख्य चिह्न है, इस के सिवाय ज्वर के वेग का न्यूनाधिक ( कम ज्यादा ) होना, गला ओष्ठ ( होठ ) मुख का सूखना, निद्रा का नाश, छींक का बन्द होना, शरीर में रूक्षता ( रूखापन ), दस्त की कबजी का होना, सब शरीर में पीड़ा का होना, विशेष कर मस्तक और हृदय में बहुत पीड़ा का होना, मुख की चिरसता, शूल और अफरा, इत्यादि दूसरे भी चिह्न मालूम पड़ते हैं, यह वातज्वर प्रायः वायुप्रकृतिवाले पुरुष के तथा वायु के प्रकोप की ऋतु ( वर्षाऋतु ) में उत्पन्न होता है ।
चिकित्सा - १ - यद्यपि सब प्रकार के ज्वर में परम हितकारक होने से लङ्घन सर्वोपरि ( सब से ऊपर अर्थात् सब से उत्तम ) चिकित्सा ( इलाज ) है तथापि दोष, प्रकृति, देश, काल और अवस्था के अनुसार शरीर की स्थिति ( अवस्था ) का विचार कर लङ्घन करना चाहिये, अर्थात् प्रबल वातज्वर में शक्तिमान् ( ताक़तवर ) पुरुष को अपनी शक्ति का विचार कर आवश्यकता के अनुसार एक से छः लङ्घन तक करना चाहिये, यह भी जान लेना चाहिये कि लंघन के दो भेद हैंनिराहार और अल्पाहार, इन में से बिलकुल ही नहीं खाना इस को निराहार कहते हैं, तथा एकाध वख्त थोड़ी और हलकी खुराक का खाना जैसे- दलिया, भात तथा अच्छे प्रकार से सिजाई हुई मूंग और अरहर ( तूर ) की दाल इत्यादि, इस को अल्पाहार कहते हैं, साधारण वातज्वर में एकाध टंक ( वस्त) निराहार लङ्घन करके पीछे प्रकृति तथा दोष के अनुकूल ज्वर के दिनों की मर्यादा तक ( जिस का वर्णन आगे किया जावेगा ) ऊपर लिखे अनुसार हलकी तथा थोड़ी खुराक खानी चाहिये, क्योंकि ज्वर का यही उत्तम पथ्य है, यदि इस का सेवन भली भांति से किया जावे तो औषधि के लेने की भी आवश्यकता नहीं रहती है ।
२- यदि कदाचित् ऊपर कहे हुए लङ्घन का सेवन करने पर भी ज्वर न उतरे तो सब प्रकार के ज्वरवालों को तीन दिन के बाद इस औषधि का सेवन करना चाहिये - देवदारु दो रुपये भर, धनिया दो रुपये भर, सोंठ दो रुपये भर, रींगणी दो
१ - चौपाई - बड़ो वेग कम्प तन होई || ओठ कण्ठ मुख सूखत सोई ॥ १ ॥ निद्रा अरु छिक्का को नासू ॥ रूखो अङ्ग कबज़ हो तासू ॥ २ ॥ शिर हृद सब अँग पीड़ा होवै ॥ बहुत उबासी मुख रस खोवै ॥ ३ ॥ गाढ़ी विष्ठा मूत्र जुलाला ॥ उष्ण वस्तु चाहै चित चाला ॥ ४ ॥ नेत्र जु लाल रङ्ग पुनि होई || उदर आफरा पीड़ा सोई ॥ ५ ॥ वातज्वरी के एते लक्षण | इन पर ध्यानहिं धरो विचक्षण || ६ ||
२- क्योंकि लङ्घन करने से अग्नि (आहार न पहुँचने से ) कोठे में स्थित दोषों को पकाती
हैं और जब दोप पक जाते हैं तब उन की प्रबलता जाती रहती है, परन्तु जब लड्ङ्घन नहीं किया जाता है अर्थात् आहार को पेट में पहुँचाया जाता है तब अग्नि उसी आहार को ही पकाती है किन्तु दोषों को नहीं पकाती है ॥
३८ जै० सं०
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