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जैनसम्प्रदायशिक्षा।
मुख्य रूप है, परन्तु इस प्रकार से शरीर के तपने का क्या कारण है और वह (तपने की) क्रिया किस प्रकार होती है यह विषय बहुत सूक्ष्म है, देशी वैद्यकशास्त्रने ज्वर के विषय में यही सिद्धान्त ठहराया है कि वात, पित्त और कफ, ये तीनों दोप अयोग्य आहार और विहार से कुपित होकर जठर (पेट) में जाकर अग्नि को बाहर निकाल कर ज्वर को उत्पन्न करते हैं, इस विषय का विचार करने से यही सिद्ध होता है कि-वात, पित्त और कफ, इन तीनों दोषों की समानता (बराबर रहना) ही आरोग्यता का चिह्न है और इन की विषमता अर्थात् न्यूनाधिकता ( कम वा ज्यादा होना) ही रोग का चिह्न है, तथा उक्त दोपों की समानता और विषमता केवल आहार और विहार पर ही निर्भर है।
इस के सिवाय-इस विषय पर विचार करने से यह भी सिद्ध होता है कि जैसे शरीर में वायु की वृद्धि दूसरे रोगों को उत्पन्न करती है उसी प्रकार वह वातज्वर को भी उत्पन्न करती है, इसी प्रकार पित्त की अधिकता अन्य रोगों के समान पित्तज्वर को तथा कफ की अधिकता अन्य रोगों के समान कफज्वर को भी उत्पन्न करती है, उक्त क्रम पर ध्यान देने से यह भी समझमें आ सकता है कि-इन में से दो दो दोषों की अधिकता अन्य रोगों के समान दो दो दोषों के लक्षणवाले ज्वर को उत्पन्न करती है और तीनों दोपों के विकृत होने से वे (तीनों दोष) अन्य रोगों के समान तीनों दोपों के लक्षणवाले त्रिदोष (सन्निपात) ज्वर को उत्पन्न करते हैं।
ज्वर के भेदों का वर्णन । ज्वर के भेदों का वर्णन करना एक बहुत ही कठिन विषय है, क्योंकि ज्वर की उत्पत्तिके अनेक कारण हैं, तथापि पूर्वाचार्यों के सिद्धान्त के अनुसार ज्वर के कारण को यहां दिखलाते हैं-ज्वर के कारण मुख्यतया दो प्रकार के हैं-आन्तर और बाह्य, इन में से आन्तर कारण उन्हें कहते हैं जो कि शरीर के भीतर ही उत्पन्न होते हैं, तथा बाह्य कारण उन्हें कहते हैं जो कि बाहर से उत्पन्न होते हैं, इन में से आन्तर कारणों के दो भेद हैं-आहार विहार की विषमता अर्थात् आहार (भोजन पान ) आदि की तथा विहार (डोलना फिरना तथा स्त्रीसङ्ग आदि) की विषमता (विरुद्ध चेष्टा) से रस का विगड़ना और उस से ज्वर का आना, इस प्रकार के कारणों से सर्व साधारण ज्वर उत्पन्न होते हैं, जैसे कि-तीन तो पृथक् २ दोपवाले, तीन दो २ दोषवाले तथा मिश्रित तीनों दोपवाला इत्यादि, इन्हीं कारणों से उत्पन्न हुए ज्वरों में विषमज्वर आदि ज्वरों का भी समावेश हो जाता है, शरीर के अन्दर शोथ (सूजन) तथा गांठ आदि का होना आन्तर कारण का दूसरा भेद है अर्थात् भीतरी शोथ तथा गांठ आदि के वेग से ज्वर का
१-संस्थान, व्यअन, लिङ्ग, लक्षण, चिह्न और आकृति, ये छः शब्द रूप के पर्यायवाचक (एकार्थवाची) हैं।
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