SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय । . चौदहवां प्रकरण | ज्वरवर्णन | ४५१ ज्वर के विषय में आवश्यक विज्ञान | ज्वर का रोग यद्यपि एक सामान्य प्रकार का गिना जाता है परन्तु विचार कर देखा जावे तो यह रोग बड़ा कठिन है क्योंकि यह सब रोगों में मुख्य होने से यह सब रोगों का राजा कहलाता है, इसलिये इस रोग में उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, देखिये ! इस भारत वर्ष में बहुत सी मृत्युयें प्रायः ज्वर ही के कारण होती हैं, इसलिये इस रोग के समय में इस के भेदों का विचार कर उचित चिकित्सा करनी चाहिये, क्योंकि भेद के जाने विना चिकित्सा ही व्यर्थ नहीं जाती है किन्तु यह रोग प्रबलता को धारण कर भयानक रूप को पकड़ लेता है तथा अन्त में प्राणघातक ही हो जाता है । ज्वर के बहुत से भेद हैं- जिन के लक्षण आदि भी पूर्वाचार्यों ने पृथक् २ कहे हैं परन्तु यह सब प्रकार का ज्वर किस मूल कारण से उत्पन्न होता है तथा किस प्रकार चढ़ता और उतरता है इत्यादि बातों का सन्तोषजनक ( हृदय में सन्तोषको उत्पन्न करने वाला ) समाधान अद्यावधि ( आजतक ) कोई भी विद्वान् ठीक रीति से नहीं कर सका है और न किसी ग्रन्थ में ही इस के विषय का समाधान पूर्ण रीति से किया गया है किन्तु अपनी शक्ति और अनुभव के अनुसार सब विद्वानों ने इस का कथन किया है, केवल यही कारण है कि-बड़े २ विद्वान् वैद्य भी इस रोग में बहुत कम कृतकार्य होते हैं, इस से सिद्ध है किज्वर का विषय बहुत ही गहन ( कठिन ) तथा पूर्ण अनुभवसाध्य है, ऐसी दशा में वैद्यक के वर्तमान ग्रन्थों से ज्वर का जो केवल सामान्य स्वरूप और उस की सामान्य चिकित्सा जानी जाती है उसी को बहुत समझना चाहिये । उक्त न्यूनता का विचार कर इस प्रकरण में गुरुपरम्परागत तथा अनुभवसिद्ध ज्वर का विषय लिखते हैं अर्थात् ज्वर के मुख्य २ कारण, लक्षण और उन की चिकित्सा को दिखलाते हैं - इस से पूर्ण आशा है कि केवल वैद्य ही नहीं किन्तु एक साधारण पुरुष भी इस का अवलम्बन कर ( सहारा लेकर ) इस महाकठिन रोग में कृतकार्य हो सकता है । ज्वर के स्वरूप का वर्णन । शरीर का गर्म होकर तप जाना अथवा शरीर में जो स्वाभाविक ( कुदरती ) उष्णता (गर्मी) होनी चाहिये उस से अधिक उष्णता का होना यह ज्वर का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034525
Book TitleJain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreepalchandra Yati
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1931
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy